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________________ [चार तीर्थंकर : माना जाता है, वह सारे जीवन या सामाजिक जीवन की दृष्टि से बराबर और योग्य है ? और अति प्राचीन काल में जो जैन धर्म का प्रवाह किसी तरह से बहता था, उसका स्वरूप क्या ऐसा ही था अथवा इससे जुदा था ? अगर जैनधर्म का निवृत्तिप्रधान दिखाई देने वाला स्वरूप ही धर्म का स्वाभाविक और असली स्वरूप है तो इस पर से अपने आप यह फलित होता है कि धर्म का प्रवृत्तिप्रधान स्वरूप स्वाभाविक नहीं है। वह तो विकृति अथवा सामाजिक जीवन में अपवादमात्र है। इस पर से यह भी फलित होता है कि प्रवृत्तिप्रधान स्वरूप को धर्म में पीछे से प्रतिष्ठा का स्थान मिला है। असल में तो धर्म का स्वरूप निवृत्तिप्रधान ही था। प्रवृत्तिधर्म ही जैनधर्म के मूल में है विचार करने पर उक्त प्रश्न के उत्तर में मुझे यही मानना ज्यादा वाजिब और संगत लगता है कि व्यक्तिगत और सामाजिक समग्र जीवन के साथ बराबर और पूरा-पूरा मेल खाने वाला धर्म का स्वरूप प्रवृत्तिप्रधान ही है निवृत्तिप्रधान नहीं। इसी तरह मुझे यह भी प्रतीत होता है कि किसी समय में जैनधर्म के मूल उद्गम में निवृत्तिप्रधान स्वरूप को स्थान नहीं मिला था, बल्कि उसमें प्रवृत्तिप्रधान स्वरूप का ही स्थान था। मेरे इस मंतव्य की पुष्टि वर्तमान जैनपरम्परा के आदि-प्रवर्तक तीर्थंकर ऋषभदेव के छिन्न-भिन्न और बहुत पीछे से अर्थात् निवृत्तिप्रधान धर्म की प्रतिष्ठा होने के बाद लिखे हुए या संकलित किये हुए जीवनवृत्तान्त से भी असंदिग्ध रूप से होती है। यह जवाब अगर सच्चा है तो प्रवृत्तिप्रधान धर्म का स्वरूप विकृति है अथवा वह स्वरूप पीछे से आया हुआ है, यह मानने का कोई कारण नहीं रहता। भगवान महावीर ने निवृत्ति पर जोर क्यों दिया? हाँ, ऐसा होते हुए भी मेरे इन विचारों पर कितने ही प्रश्न-बाण छूटेंगे, यह मैं समझता हूँ। कोई अवश्य पूछ सकता है कि अगर सामाजिक जीवन की दृष्टि से प्रवृत्तिप्रधान धर्म ही संगत और स्वाभाविक है तो भगवान महावीर वगैरह ने प्रवृत्तिधर्म पर जोर नहीं देकर निवृत्तिप्रधानता के ऊपर जोर क्यों दिया? उसी तरह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001054
Book TitleChar Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Shobhachad Bharilla, Bhavarmal Singhi, Sagarmal Jain, Dalsukh Malvania
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1989
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, History, & E000
File Size8 MB
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