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________________ १३० : भगवान् पार्श्वनाथ की विरासत के विषय में प्रतीति होती है, तब वे वन्दन-नमस्कारपूर्वक उनका शिष्यत्वा स्वीकार करते हैं, अर्थात् पंच महाव्रतों और सप्रतिक्रमणधर्म के अंगीकार द्वारा महागीर के संघ के अंग बनते हैं। भगवती -३२-३७८, ३७६ में गांगेय नामक पानापत्यिक का वर्णन है। वह वाणिज्यग्राम में महावीर के पास जाकर उनसे जीनों की उत्पत्ति-च्युति आदि के बारे में प्रश्न करता है । महावीर जबाब देते हुए प्रथम ही कहते हैं कि, पूरिसादाणीय पार्वा ने लोक का स्वरूप शाश्त कहा है। इसी से मैं उत्पत्ति-च्यूत आदि का खुलासा अमुक प्रकार से करता हूं। गांगेय पुनः प्रश्न करता है कि, आप जो कहते हैं वह किसी से सुनकर या स्वयं जानकर ? महावीर के मुख से यहाँ कहलाया गया है कि, मैं केवली हूं, स्वयं ही जानता हूं। गांगेय को सर्वज्ञता की प्रतीति हई, फिर वह चातुर्यामिक धर्म से पंचमहाव्रत स्वीकारने की अपनी इच्छा प्रकट करता है और अन्त में सप्रतिक्रमण पंचमहावत स्वीकार करके महावीर के संघ का अग बनता है। सूत्रकृतांग के नालंदीया अध्ययन (२-७-७१, ७२, ८१) में पाश्र्वापत्यिक उदक पेढाल का वर्णन है, जिसमें कहा गया है कि, नालंदा के एक श्रावक लेप की उदकशाला में जब गौतम थे तब उनके पास वह पार्वापत्यिक आया और उसने गौतम से कई प्रश्न पूछे । एक प्रश्न यह था कि, तुम्हारे कुमार-पुत्र आदि निर्ग्रन्थ जब गृहस्थों को स्थूल व्रत स्वीकार कराते हैं तो क्या सिद्ध नहीं होता कि, निषिद्ध हिंसा के सिवाय अन्य हिंसक प्रवृत्तियों में स्थूल व्रत देने वाले निर्ग्रन्थों की अनुमति है ? अमुक हिंसा न करो, ऐसी प्रतिज्ञा कराने से यह अपने आप फलित होता है कि, बाकी की हिंसा में हम अनुमत हैं । इत्यादि प्रश्नों का जवाब गौतम ने विस्तार से दिया है। जब उदक पेढाल को प्रतीति हुई कि गौतम का उत्तर सयुक्तिक है तब उसने चातुर्यामधर्म से पंचमहाव्रत स्वीकारने की इच्छा प्रकट की। फिर गौतम उसको अपने नायक ज्ञातपुत्र महावीर के पास ले जाते हैं। वहीं उदक पेढाल पंचमहाव्रत सप्रतिक्रमणधर्म का अंगीकार करके महावीर के संघ में सम्मिलित होता है। गौतम और उदक पेढाल के बीच हुई विस्तृत चर्चा मनोरंजक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001054
Book TitleChar Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Shobhachad Bharilla, Bhavarmal Singhi, Sagarmal Jain, Dalsukh Malvania
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1989
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, History, & E000
File Size8 MB
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