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________________ १२८ : भगवान् पार्श्वनाथ की विरासत ऐसा मानने में कोई खास सन्देह नहीं रहता कि, बुद्ध ने, भले थोड़े ही समय के लिये ही, पार्श्वनाथ की परम्परा को स्वीकार किया था अध्यापक धर्मानन्द कौशाम्बी ने भी अपनी अन्तिम पुस्तक "पार्श्वनाथाचा चतुर्याम धर्म" (पृ० १४, २६) में ऐसी ही मान्यता सूचित की है। बुद्ध महावीर से प्रथम पैदा हुए और प्रथम ही निर्वाण प्राप्त किया। बुद्ध ने निग्रंथों के तपःप्रधान आचारों की अवहेलना की है और पूर्व-पूर्व गुरुओं को चर्या तथा तत्वज्ञान का मार्ग छोड़कर अपने अनुभव से एक नये विशिष्ट मार्ग की स्थापना की है, गृहस्थ और त्यागी संघ का नया निर्माण किया है। जब कि महावीर ने ऐसा कुछ नहीं किया। महावीर का पितृधर्म पाश्र्वपत्यिक निग्रंथों का है। है, जो आगमों में पहले से हो प्रयुक्त देखा जाता है (उवासगदसाओ )। "सावग" तथा "उवासग" ये दोनों शब्द किसी न किसी रूप में पिटक (दोघनिकाय ४) तथा आगमों में पहले से ही प्रचलित रहे हैं। यद्यपि बौद्ध परम्परा में "सावग" का अर्थ है "बुद्ध के साक्षात् भिक्ष -शिष्य" (मज्झिमनिकाय ३), जब कि जैनपरम्परा में वह "उपासक' को तरह गृहस्थ अनुयायी अर्थ में ही प्रचलित रहा है। कोई व्यक्ति गृहस्थाश्रम का त्याग कर भिक्ष बनता है तब उस में एक वाक्य रूढ़ है, जो पिटक तथा आगम दोनों में पाया जाता है वह वाक्य है "अगारस्मा अनगारियं पव्वजन्ति" (महावग्ग), तथा "अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए" (भगवती ११-१२-४३१)। यहाँ केवल नमूने के तौर पर थोड़े से शब्दों की तुलना की गयो है,पर इसके विस्तार के लिए और भी पर्याप्त गुंजाइश है । ऊपर सूचित शब्द और अर्थ का सादृश्य खासा पुराना है। वह अकस्मात् हो ही नहीं सकता । अतएव इसके मूल में कहीं-न-कहीं जाकर एकता खोजनी होगी, जो संभवतः पार्श्वनाथ की परंपरा का ही संकेत करती है। १. मज्झिमनिकाय, महासिंहनादसुत्त । १।१।२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001054
Book TitleChar Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Shobhachad Bharilla, Bhavarmal Singhi, Sagarmal Jain, Dalsukh Malvania
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1989
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, History, & E000
File Size8 MB
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