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________________ [चार तीर्थकर : ६ उनके द्वारा प्रतिपादित किये हुये कठिन व्रतों का पालन भी करते हैं। एक बार अहमदाबाद में सन् १९२६-२७ में मुझे एक बंगाली गृहस्थ मिले थे, जो बी. ए., एल. एल. बी. थे और बहुत समझदार थे। उन्होंने मुझे अपनी खुद की और अपने पंथ की उपासना के विषय में बात करते हुए कहा कि वे दत्त आदि अवधूतों को मानते हैं। लेकिन इन सब अवधूतों में ऋषभदेव उनके मत में मुख्य और आदि हैं। उन्होंने यह भी कहा कि उनके पंथ में आगे बढ़ने वाले गृहस्थ या योगी के लिए ऋषभदेव के जीवन का अनुकरण करना आदर्श गिना जाता है। इस अनुकरण में अनेक प्रकार के तप आदि के बाद शरीर के ऊपर निर्मोहता सिद्ध करने का भी आदर्श है । वह यहाँ तक कि शरीर में कीड़ा पड़ जाये तो भी साधक उसे फेंकता नहीं, बल्कि कीड़ों को शरीर अर्पण करते हुये उसे विशेष आनन्द होता है। उन बंगाली गृहस्थ की इन बातों ने मेरा ध्यान खींचा और मुझे तुरन्त लगा कि अगर ऋषभदेव सिर्फ जैनों के ही देव और उपास्य होते तो वे पार्श्वनाथ और महावीर के बाद जैनेतर-परम्परा में कभी उपास्य का स्थान नहीं पाते। भगवान् महावीर का उग्र तप और देहदमन प्रसिद्ध ही है। उसका अनुकरण कहीं भी जैनेतर वर्ग में नहीं हो रहा है और ऋषभदेव का अनुकरण कहीं तो दिखाई देता है। इससे यह मालूम होता है कि ऋषभदेव प्राचीन काल से ही आर्यजाति के सामान्य उपास्य देव रहे होंगे । भागवत का वर्णन इसी दृष्टि की पुष्टि करता है। मूल में जैन धर्म का स्वरूप कैसा था ? यह तो हम ऊपर देख ही चुके हैं कि भगवान् पार्श्वनाथ और महावीर के समान कठोर तपस्वी और निकटवर्ती जैन तीर्थङ्करों की अपेक्षा अति प्राचीन ऋषभदेव का प्रतिष्ठाक्षेत्र कितना व्यापक है। परन्तु यहीं प्रश्न उत्पन्न होता है कि इस फर्क का कारण क्या है ? यह प्रश्न हमको इस बात का विचार करने को प्रेरित करता है कि जैनधर्म का असली स्वरूप कैसा था और वर्तमान जैन धर्म तथा जैन संस्कृति और जैन भावना के प्राचीन मूल्य कैसे थे ? भारतवर्ष में प्रचलित प्राचीन धर्मों के दो विभाग किये जा सकते हैं-प्रवृत्तिधर्म और निवृत्तिधर्म । प्रवृत्तिधर्म अर्थात् चतुराश्रमधर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001054
Book TitleChar Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Shobhachad Bharilla, Bhavarmal Singhi, Sagarmal Jain, Dalsukh Malvania
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1989
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, History, & E000
File Size8 MB
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