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६४ : धर्मवीर महावीर और कर्मवीर कृष्ण] जो कुछ कहे या सोचे वह परोक्ष कोटि का ही होगा यह कहने की शायद ही आवश्यकता है।
मेरे इस वक्तव्य से आप लोग यह समझ सकते हैं कि एक ही महापुरुष की समान जीवन-सामग्री का उपयोग करने वाले तद्विदों और अनुयायिओं में भी किस-किस कारण से विरोधी अभिप्राय बद्धमल होते हैं और उसी सामग्री का अमुक दृष्टि से उपयोग करने पर किस प्रकार अभिप्रायविरोध शान्त हो जाता है तथा जीवन के मूलभूत और सर्वोत्तम श्रद्धा-बुद्धि के दिव्य अंश किस प्रकार अपनी कला पाँख को विस्तृत करते हैं ।
[अनु०-दलसुख मालवणिया
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