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आगम-युग का जैन-दर्शन
भगवती
सूत्र
में जीव के परिणाम दा गिनाए हैं यथा
गति - परिणाम, इन्द्रिय- परिणाम, कपाय परिणाम, लेश्या - परिणाम, योग - परिणाम, उपयोग - परिणाम, ज्ञान- परिणाम, चारित्र परिणाम और वेद परिणाम | -भग ० १४. ४. ५१४ । जीव और काय का यदि अभेद न माना जाए तो इन परिणामों को जीव के परिणामरूप से नहीं गिनाया जा सकता । इसी प्रकार भगवती में ( १२.५.४५१ ) जो जीव के परिणाम रूप से वर्ण, गन्ध एवं स्पर्श का निर्देश है, वह भी जीव और शरीर के अभेद को मान कर ही घटाया जा सकता है ।
अन्यत्र गौतम के प्रश्न के उत्तर में निश्चयपूर्वक भगवान् ने कहा
है कि
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"गोयमा, अहमेयं जाणामि अहमेयं पासामि अहमेयं बुज्झामि जं णं तहाrयस्स जीवस्स सरूविस्स सकम्मस्स सरागस्स सबेदगस्स समोहस्स ससस्स ससरीरस्स ताओ सरीराओ अविष्यमुक्कस्स एवं पनयति तं जहा कालत्ते वा जाव सुक्किलते वा, सुभिगंधत्ते वा तित्ते वा जाव महुरते वा, कक्खडत्ते वा जाव लुक्खते वा ।" भग० १७.२. ।
अन्यत्र जीव के कृमणवर्ण पर्याय का भी निर्देश है-- भग० २५.४ | ये सभी निर्देश जीव शरीर के अभेद की मान्यता पर निर्भर हैं । इसी प्रकार आचारांग में आत्मा के विषय में जो ऐसे शब्दों का प्रयोग है
" सव्वे सरा नियन्ति तक्का जत्थ न विज्जति, मई तत्थ न गाहिया । ओए अप्पइट्ठाणस्स वेयन े । से न दीहे न हस्से न बट्टे न तसे न चउरंसे न परिमंडले न किण्हे न नीले न इत्थी न पुरिसे न अन्नहा परिन्ने सन्ने उवमा न विज्जए अरूबी सत्ता अपयस्स पयं नत्थि ।" आचा० सू० १७० ।
वह भी संगत नहीं हो सकता, यदि आत्मा शरीर से भिन्न न माना जाए शरीर भिन्न आत्मा को लक्ष्य करके स्पष्ट रूप से भगवान् ने कहा है, कि उसमें वर्ण- गन्ध-रस स्पर्श नहीं होते
"गोयमा ! अहं एवं जाणामि, जाव जं णं तहागयस्स जीवस्स अरूविस्स अकम्मस्स अवेदस्स अलेस्स्स असरीरस्स ताओ सरीराओ facererra नो एवं पन्नायति तं जहा कालत्ते वा जाव लुक्खत्ते वा ।" भगवती० १७.२. ।
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