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________________ ६४ आगम-युग का जैन-दर्शन उन्नति और उत्सर्पिणी भी देखी जाती है एक रूप में सर्वथा शाश्वत में परिवर्तन नहीं होता अतएव उसे अशाश्वत भी मानना चाहिए। लोक क्या है : प्रस्तुत में लोक से भगवान् महावीर का क्या अभिप्राय है, यह भी जानना जरूरी है। उसके लिए नीचे के प्रश्नोत्तर पर्याप्त हैं । "किमियं भंते, लोएत्ति पवुच्चइ ?" "गोयमा, पंचत्थिकाया. एस णं एवतिए लोएत्ति पवुच्चइ । तं जहा धम्मथिकाए अहम्मस्थिकाए जाव (आगासस्थिकाए) पोग्गलस्थिकाए।" भग० १३.४.४८१ ।। अर्थात् पाँच अस्तिकाय ही लोक है । पाँच अस्तिकाय ये हैंधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय । जीव-शरीर का भेदाभेद : जीव और शरीर का भेद है, या अभेद इस प्रश्न को भी भगवान् बुद्ध ने अव्याकृत कोटि में रखा है। इस विषय में भगवान् महावीर के मन्तव्य को निम्न संवाद से जाना जा सकता है-- "आया भन्ते, काये अन्ने काये !" "गोयमा, आयावि काये अन्नेवि काये।" "रूवि भन्ते, काये अरविं काये ?" गोयमा, रूवि वि काये अवि वि काये।" "एवं एक्केक्के पुच्छा। 'गोयमा, सच्चित्ते वि काये अच्चित्ते वि काये"। . भग० १३.७.४६५ । उपर्युक्त संवाद से स्पष्ट है कि भगवान् महावीर ने गौतम के प्रश्न के उत्तर में आत्मा को शरीर से अभिन्न भी कहा है और उससे भिन्न भी कहा है । ऐसा कहने पर और दो प्रश्न उपस्थित होते हैं, कि यदि शरीर आत्मा से अभिन्न है, तो आत्मा की तरह यह अरूपी भी होना वाहिए और अचेतन भी। इन प्रश्नों का उत्तर भी स्पष्ट रूप से दिया गया है कि काय अर्थात् शरीर रूपी भी है और अरूपी भी। शरीर सचेतन भी है और सचेतन भी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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