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दो शब्द द्वितीय प्रावृत्ति के अवसर में
" श्रागम-युग का जैन दर्शन" प्रकाशित होने के बाद "जैन दर्शन का आदिकाल " प्रकाशित हो चुका है । मेरी इच्छा तो यह थी कि अब श्रागम युग का मध्यकाल और उत्तरकाल ऐसा विभाजन कर, प्रस्तुत पुस्तक को पुनः लिखकर तीन खण्ड में कर दूं । किन्तु, अब आयु ऐसी नहीं रही कि नया कुछ करने का साहस कर सकूं। अतएव प्रस्तुत पुस्तक को जैसी है, पुनः प्रकाशित करवा रहा हूँ । इसके प्रकाशन के लिये मैं महोपाध्याय विनयसागरजी का ऋणी हूँ कि उन्होंने इसे पुन: प्रकाशित करने की योजना बनाई ।
दिनांक १८.८८८ अहमदाबाद
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दलसुख मालवरिया
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