SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४ आगम-युग का जैन दर्शन । वह सुरक्षित रह गई । आचार के कठोर नियमों को श्रुत की सुरक्षा की दृष्टि से शिथिल कर दिया गया। श्रुतरक्षा के लिए कई अपवादों की सृष्टि की गई । दैनिक आचार में भी श्रुत-स्वाध्याय को अधिक महत्त्व दिया गया। इतना करने पर भी जो मौलिक कमी थी, उसका निवारण तो हुआ नहीं। क्योंकि गुरु अपने श्रमण शिष्य को ही ज्ञान दे सकता था । इस नियम का तो अपवाद हुआ ही नहीं । अतएव अध्येता श्रमणों के अभाव में गुरु के साथ ही ज्ञान चला जाए, तो उसमें आश्चर्य क्या ? कई कारणोंसे, विशेषकर जैनश्रमण की कठोर तपस्या और अत्यन्त कठिन आचार के कारण अन्य बौद्धआदि श्रमणसंघों की तरह जैन श्रमण संघ का संख्याबल शुरू से ही कम रहा है। इस स्थिति में कण्ठस्थ की तो क्या, वलभी में लिखित सकल ग्रन्थों की भी सुरक्षा न रह सकी हो, तो इसमें आश्चर्य ही क्या ? पाटलीपुत्र-वाचना: बौद्ध इतिहास में भगवान बुद्ध के उपदेश को व्यवस्थित करने के लिए भिक्षुओं ने कालक्रम से कई संगीतियाँ की थीं, यह प्रसिद्ध है । उसी प्रकार भगवान् महावीर के उपदेश को भी व्यवस्थित करने के लिए जैन आचार्यों ने भी तीन वाचनाएं की थीं। जब आचार्यों ने देखा, कि श्रुत का ह्रास हो रहा है, उसमें अव्यवस्था होगई है, तब जैनाचार्यों ने एकत्र होकर जैनश्रुत को व्यवस्थित किया है। भगवान्१९ महावीर के निर्वाण से करीब १६० वर्ष बाद पाटलिपुत्र में एक लम्बे समय के दुर्भिक्ष के बाद जैनश्रमणसंघ एकत्रित हुआ था । उन दिनों मध्यप्रदेश में अनावृष्टि के कारण जैनश्रमण तितर-बितर हो गए थे । अतएव अंगशास्त्र की दुरवस्था होना स्वाभाविक ही है। एकत्रित हुए श्रमणों ने एक दूसरे से पूछ-पूछकर ११ अंगों को व्यवस्थित किया, किन्तु देखा गया कि उनमें से किसी को भी सम्पूर्ण दृष्टिवाद का परिज्ञान न था। उस समय दृष्टिवाद के ज्ञाता आचार्य भद्रबाहु थे, किन्तु १९ आवश्यक चूणि भा २, पृ १८७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy