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प्राचार्य मल्लवादी का नयचक्र ३११ भी बारहवें नय की स्थापना को खण्डित करके अपनी स्थापना करता है। इस प्रकार ये बारहों नय पूर्व-पूर्व की अपेक्षा प्रबल और उत्तर-उत्तर की अपेक्षा निर्बल हैं। कोई भी ऐसा नहीं जिसके पूर्व में कोई न हो और उत्तर में भी कोई न हो। अतएव नयों के द्वारा संपूर्ण सत्य का साक्षात्कार नहीं होता। इस तथ्य को नयचक्र की रचना करके आचार्य मल्लवादी ने मार्मिक ढंग से प्रस्थापित किया है। और इस प्रकार यह स्पष्ट कर दिया है कि स्याद्वाद ही अखंड सत्य के साक्षात्कार में समर्थ है, विभिन्न मतवाद या नय नहीं ।
तुम्ब हो, आरे हों किन्तु नेमि न हो तो वह चक्र गतिशील नहीं बन सकता और न चक्र ही कहला सकता है अत एव नेमि भी आवश्यक है । इस दृष्टि से नयचक्र के पूर्ण होने में भी नेमि आवश्यक है । प्रस्तुत नयचक्र में तीन अंश में विभक्त नेमि की कल्पना की गई है । प्रत्येक अंश को मार्ग कहा गया है। प्रथम चार आरे को जोड़नेवाला प्रथम मार्ग आरे के द्वितीय चतुष्क को जोड़ने वाला द्वितीय मार्ग और आरों के तृतीय चतुष्क को जोड़नेवाला तृतीय मार्ग है । मार्ग के तीन . भेद करने का कारण यह है कि प्रथम के चार विधिभंग हैं । द्वितीय चतुष्क उभयभंग है और तृतीय चतुष्क नियमभंग है । ये तीनों मार्ग क्रमशः नित्य, नित्यानित्य और अनित्य की स्थापना करते हैं२२ । नेमि को लोहवेष्टन से मंडित करने पर वह और भी मजबूत बनती है अतएव चक्र को वेष्टित करने वाले लोहपट्ट के स्थान में सिंहगणि-विरचित नयचक्रवालवृत्ति है। इस प्रकार नयचक्र अपने यथार्थ रूप में चक्र है ।
नयों के द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक ऐसे दो भेद प्राचीन काल से प्रसिद्ध हैं । नंगमादि सात नयों का समावेश भी उन्हीं दो नयों में होता है । मल्लवादी ने द्वादशारनयचक्र की रचना को तो उन बारह नयों का संबंध उक्त दो नयों के साथ बतलाना आवश्यक था । अत एव आचार्य ने स्पष्ट कर दिया है कि विधि आदि प्रथम के छह नय द्रव्याथिक नय के अन्तर्गत हैं और शेष छह पर्यायाथिक नय के अन्तर्गत
२२ श्री प्रात्मानंद प्रकाश ४५. ७. पृ० १२३. ।
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