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आगम-साहित्य की रूप-रेखा
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अब वक्ता की दृष्टि से जिस प्रकार आगम की व्याख्या की गई. है, उसका विचार भी करलें । व्यवहार-दृष्टि से जितने शास्त्र जैनागमान्तर्गत हैं, उनको यह व्याख्या व्याप्त करती है। अर्थात् जैन लोग वेदादि से पृथक् ऐसा जो अपना प्रामाणिक शास्त्र मानते हैं वे सभी लक्ष्यान्तर्गत हैं।
आगम की सामान्य व्याख्या तो इतनी ही है कि आप्त का कथन आगम है । जैनसम्मत आप्त कौन हैं ? इसकी व्याख्या में कहा गया है, कि जिसने राग और द्वेष को जीत लिया है, वह जिन तीर्थंकर, एवं सर्वज्ञ . भगवान् आप्त हैं । और जिन का उपदेश एवं वाणी ही जैनागम है । उसमें वक्ता के साक्षात् दर्शन और वीतरागता के कारण दोष की संभाबना ही नहीं, पूर्वापर विरोध भी नहीं और युक्तिबाध भी नहीं । अतएव मुख्य रूप से जिनों का उपदेश एवं वाणी जैनागम प्रमाण भूत माना जाता है, और गौणरूप से उससे अनुप्राणित अन्य शास्त्र भी प्रमाणभूत माने जाते हैं।
यहाँ पर यह प्रश्न होता है कि जैनागम के नाम से जो द्वादशांगी आदि शास्त्र प्रसिद्ध हैं, क्या वह जिनों का साक्षात् उपदेश है ? क्या जिनों ने ही उसको ग्रंथबद्ध किया था।
. इस प्रश्न का उत्तर देने से पहले इतना स्पष्टीकरण आवश्यक है कि वर्तमान में उपलब्ध जो आगम हैं, वे स्वयं गणधर-ग्रथित आगमों की संकलना है । यहाँ जैनों की तात्त्विक मान्यता क्या है, उसी को दिखा कर उपलब्ध जैनागम के विषय में आगे विशेष विचार किया जाएगा।
__जैन अनुश्रुति उक्त प्रश्न का उत्तर इस प्रकार देती है-जिन भगवान् उपदेश देकर विचार और आचार के मूल सिद्धान्त का निर्देश करके कृत-कृत्य हो जाते हैं । उस उपदेश को जैसा कि पूर्वोक्त रूपक में बताया गया है, गणधर या विशिष्ट प्रकार के साधक ग्रंथ का रूप देते हैं । फलितार्थ यह है, कि ग्रन्थबद्ध उपदेश का जो तात्पर्यार्थ है, उसके
" प्राप्तोपदेशः शब्दः-न्यायसूत्र १, १ ७. लत्त्वार्थभाष्य १, २०. ८ नंदीसूत्र ४०.
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