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________________ २३८ प्रागम-युग का जैन-दर्शन ज्ञानी में' । ज्ञानी से ज्ञानगुण को, धनी से धन के समान, अत्यन्त भिन्न नहीं माना जा सकता। क्योंकि ज्ञान और ज्ञानी अत्यन्त भिन्न हों, तो ज्ञान और ज्ञानी-आत्मा ये दोनों अचेतन हो जाएँगे°२। आत्मा और ज्ञान में समवाय सम्बन्ध मानकर वैशेषिकों ने आत्मा को ज्ञानी माना है । किन्तु प्राचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है, कि ज्ञान के समवाय सम्बन्ध के कारण भी प्रात्मा ज्ञानी नहीं हो सकता । किन्तु गुण और द्रव्य को अपृथग्भूत अयुतसिद्ध ही मानना चाहिए। प्राचार्य ने वैशेषिकों के समवाय लक्षणगत अयुतसिद्ध शब्द को स्वाभिप्रेत अर्थ में घटाया है। क्योंकि वैशेषिकों ने अयुतसिद्ध में समवाय मानकर भेद माना है, जबकि प्राचार्य कुन्दकुन्द ने अयतसिद्ध में तादात्म्य माना है । आचार्य ने स्पष्ट कहा है कि दर्शनज्ञान गुण प्रात्मा से स्वभावतः भिन्न नहीं, किन्तु व्यपदेश भेद के कारण पृथक् (अन्य) कहे जाते हैं । इसी अभेद को उन्होंने अविनाभाव सम्बन्ध के द्वारा भी व्यक्त किया है । वाचक ने इतना तो कहा है, कि गुण-पर्याय वियुक्त द्रव्य नहीं होता । उसी सिद्धान्त को आचार्य कुन्दकुन्द ने पल्लवित करके कहा है कि द्रव्य के बिना पर्याय नहीं और पर्याय के बिना द्रव्य नहीं, तथा गुण के बिना द्रव्य नहीं और द्रव्य के बिना गुण नहीं । भाव-वस्तु, द्रव्य-गुणपर्यायात्मक है। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य : सत् को वाचक ने उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त कहा है। किन्तु यह १ पंचास्तिकाय ५३ । ७२ वही ५४। *3 वही ५५ । ७४ वही ५६ । अवैशे० ७.२.१३ । प्रशस्त० समवायनिरूपण । ७६ पंचास्ति० ५८ । ७७ "पज्जयविजुदं दव्वं दवविजुत्ता य पज्जया नत्थि । दोण्हं अणण्णभूदं भावं समणा पविति ॥ दम्वेण विणा ण गुणा गुरणेह दवं विणा ण संभवदि । अन्वदिरित्तो भावो दश्वगुणाणं हवदि जह्मा ॥" पंचा० १२,१३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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