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________________ "अनुयोगो नाम स यत्तद्विद्यानां तद्विद्यैरेव सार्धं तन्त्रे तन्त्रंकदेशे वा प्रश्नः प्रश्नैकदेशो वा ज्ञानविज्ञानवचनप्रतिवचनपरीक्षार्थमादिश्यते यथा नित्यः पुरुषः इति प्रतिज्ञाते यत् परः 'को हेतुरित्याह' सोऽनुयोगः । चरक विमान० १०८ - ५२ जेण पूर्वोक्त तुलना का सरलता से बोध होने के लिए नीचे तुलनात्मक नक्शा दिया जाता है, उससे स्पष्ट है कि जैनागम में जो वादपद बताए गए हैं, यद्यपि उनके नाम अन्य सभी परंपरा से भिन्न ही हैं, फिर भी अर्थतः सादृश्य अवश्य है । जैनागम की यह परंपरा वादशास्त्र के अव्यवस्थित और अविकसित किसी प्राचीन रूप की ओर संकेत करती है । क्योंकि जबसे वादशास्त्र व्यवस्थित हुआ है, तबसे एक निश्चित अर्थ में ही पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग समान रूप से वैदिक और बौद्ध विद्वानों ने किया है । उन पारिभाषिक शब्दों का व्यवहार जैन आगम में नहीं है, इससे फलित यह होता है कि आगमवर्णन किसी लुप्त प्राचीन परम्परा का ही अनुगमन करता है । यद्यपि आगम का अंतिम संस्करण विक्रम पांचवी शताब्ती में हुआ है, फिर भी इस विषय में नयी परम्परा को न अपनाकर प्राचीन परम्परा का ही अनुसरण किया गया जान पड़ता है । तस्स Jain Education International वाद-विद्या-खण्ड विणा लोगस्स वि. ववहारो सव्वहा न निव्वss || भुवणेक्क णमो गुरुणो, अगंत - १६६ For Private & Personal Use Only वायस्स || - सिद्धसेन दिवाकर www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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