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मागम युग का जैन-दर्शन
प्रतिवादी यदि उसी के पक्ष को स्वीकार कर वाद का प्रारम्भ करता है तो उसे हराने के लिए ही स्वसिद्धान्त के विरुद्ध भी वह दलील करता है, और प्रतिवादी को निगृहीत करता है ।
(३) प्रात्मोपनीत-ऐसा उपन्यास करना जिससे स्व का या स्वमत का ही घात हो । जैसे कहना कि एकेन्द्रिय सजीव हैं, क्योंकि उनका श्वासोच्छ्वास स्पष्ट दिखता है-दशवै० नि० चू० गा० ८३ ।
, यह तो स्पष्टतया असिद्ध हेत्वाभास है। किन्तु चूर्णीकार ने , इसका स्पष्टीकरण घट में व्यतिरेकव्याप्ति दिखाकर किया है, जिसका फल घट की तरह एकेन्द्रियों का भी निर्जीव सिद्ध हो जाना है, क्योंकि जैसे घट में श्वासोच्छ्वास व्यक्त नहीं वैसे एकेन्द्रिय में भी नहीं। "जहा" को वि भणेज्जा-एगेम्बिया सजीवा, कम्हा जेण तेसि फुडो उस्सासनिस्सासो दीसइ । विकतो घडो । जहा घडस्स निज्जोवत्तणेरण उस्सासनिस्सासो नत्थि । ताण उस्सासनिस्तासो फुड़ो दोसइ तम्हा एते सजीवा । एवमादीहि विरुद्ध न भासितव्य ।"
(४) दुरुपनीत-ऐसी बात करना जिससे स्वधर्म की निन्दा हो, यह दुरुपनीत है। इसका उदाहरण एक बौद्ध भिक्षु के कथन में है । यथा
"कन्थाऽऽचार्याधना ते ननु शफरवधे जालमश्नासि मत्स्यान, ते मे मद्योपदंशान् पिबसि ननु युतो वेश्यया यासि वेश्याम् । कृत्वारीणां गलेंहि क्व नु तव रिपवो येषु सन्धि छिनधि, चौरस्त्वं धूतहेतोः कितव इति कथं येन दासीसुतोऽस्मि ॥'
नि० गा० ८३-हारि०टीका। यह भी चरकसमत विरुद्ध वाक्य दोष से तुलनीय है । उनका कहना है कि स्वसमयविरुद्ध नहीं बोलना चाहिए । बौद्धदर्शन मोक्षशास्त्रिक समय है, चरक के अनुसार मोक्षशास्त्रिक समय है कि--- मोक्षशास्त्रिकसमयः सर्वभूतेहिसेति" वही ५४ । अतएव बौद्ध भिक्षु का हिंसा का समर्थन स्वसमय विरुद्ध होने से वाक्य-दोष है ।
उपायहृदय में विरुद्ध दो प्रकार का है दृष्टान्तविरुद्ध और युक्तिविरुद्ध-पृ० १७ । उपायहृदय के मत से जो जिसका धर्म हो, उससे
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