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प्रागम युग का जेन-दर्शन
इस प्रश्न में ही आत्मसिद्धि निहित है और चार्वाक के उत्तर को स्वीकार करके ही प्रश्न किया गया है।
इस पृच्छा की तुलना चरकगत अनुयोग से करना चाहिए । अनुयोग को चरक ने प्रश्न और प्रश्नैकदेश कहा है-चरक विमान० ८.५२
उपायहृदय में दूषण गिनाते हुए प्रश्नबाहुल्यमुत्तराल्पता तथा प्रश्नाल्पतोत्तरबाहुल्य ऐसे दो दूषण भी बताए हैं। इस पृच्छा की तुलना उन दो दूषणों से की जा सकती है। प्रश्नबाहुल्यमुत्तराल्पता का स्पष्टीकरण इस प्रकार है- "प्रात्मा नित्योऽनन्द्रिय कत्वात् यथाकाशोऽनन्द्रियकरवान्नित्य इति भवतः स्थापना । अथ यवनन्द्रियकं तन्नावश्यं नित्यम् । तत्कथं सिद्धम्" उपाय० पृ० २८ ।
प्रश्नाल्पतोत्तरबाहुल्य का स्वरूप ऐसा है
"आत्मा नित्योऽनन्द्रियकत्वादिति भवत्स्थापना । अनन्द्रियकस्य वैविध्यत्र । यथा परमाणवोऽनुपलभ्या अनित्या: । आकाशस्त्विन्द्रियानुपलभ्यो नित्यश्च । कथं भवतोच्यते यदनुपलभ्यत्वान्नित्य इति ।" उपाय० ० २८ ।
उपायहृदय ने प्रश्न के अज्ञान को भी एक स्वतन्त्र निग्रहस्थान माना है और प्रश्न का वैविध्य प्रतिपादित किया है
"ननु प्रश्नाः कतिविषाः ? उच्यते । त्रिविधाः। यथा वचनसम :, अर्थसमः, हेटुसमश्च । यदि वादिनस्तस्त्रिभिः प्रश्नोतराणि न कुर्वन्ति तविभ्रान्तः ।" पृ० १८ ।
(४) निश्रावचन-अन्य के बहाने से अन्य को उपदेश देना निश्रा वचन है। उपदेश तो देना स्वशिष्य को किन्तु अपेक्षा यह रखना कि उससे दूसरा प्रतिबुद्ध हो जाए। जैसे अपने शिष्य को कहना कि जो लोग जीव का अस्तित्व नहीं मानते, उनके मत में दान आदि का फल भी नहीं घटेगा। तब यह सुनकर बीच में ही चार्वाक कहता है कि ठीक तो है, फल न मिले तो नहीं सही । उसको उत्तर देना कि तब संसार में जीवों की विचित्रता कैसे घटेगी? यह निश्रावचन है-दशवै० नि० गा० ८० ।
(३) आहरणतद्दोष
(१) अधर्मयुक्त-प्रवचन के हितार्थ सावद्यकर्म करना अधर्मयुक्त होने से आहरणतद्दोष है । जैसे प्रतिवादी पोट्टशाल परिव्राजक ने वाद में हार
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