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________________ वाद-विधा-खण्ड १७५ कभी-कभी ध्यान एवं स्वाध्याय छोड़कर ऐसे वादियों को वाद-कथा में ही लगना पड़ता था, जिससे वे परेशान भी थे और गच्छ छोड़कर किसी एकान्त स्थान में जाने की वे सोचते थे। ऐसी स्थिति में गुरु उन पर प्रतिबन्ध लगाते थे, कि मत जाओ। फिर भी वे स्वच्छन्द होकर गच्छ को छोड़कर चले जाते थे। ऐसा बृहत्कल्प के भाष्य से पता चलता हैगा० ५६६१,५६६७ इत्यादि । २. कथा : स्थानांग सूत्र में कथा के तीन भेद बताए हैं। वे ये हैं "तिविहा कहा-प्रत्थकहा, पम्मकहा, काम-कहा।" सू० १८६ । इन तीनों में धर्मकथा ही यहाँ प्रस्तुत है। स्थानांग में (सू० २८२) धर्म-कथा के भेदोपभेदों का जो वर्णन है, उसका सार नीचे दिया जाता है। धर्मकथा १ आक्षेपणी २ विक्षेपणी ३ संवेजनी १ आचाराक्षे० १ स्वसमय कह १ इहलोकसं० २ व्यवहारा० कर परसमय कथन २ परलोकसं० ३ प्रज्ञप्ति २ परसमय कथनपूर्वक ३ स्वशरीरसं० ४ दृष्टिवाद स्वसमय स्थापन ४ परशरीरसं० ३ सम्यग्वाद के कथनपूर्वक मिथ्यावादकथन ४ मिथ्यावादकथनपूर्वक सम्यग्वाद स्थापन ४. निवेदनी १. इहलोक में किए दुश्चरित का फल इसी लोक में दुःखदायी २. , , परलोक में ३. परलोक में इस लोक में , , परलोक में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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