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वाद-विद्या-खण्ड
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सामान्यत: नियम है, कि साधु अपने गण-गच्छ को छोड़कर अन्यत्र न जाए, किन्तु ज्ञान-दर्शन और चरित्र की वृद्धि की दृष्टि से अपने गुरु को पूछ कर दुसरे गण में जा सकता है । दर्शन को लक्ष्य में रखकर अन्य गण में जाने के प्रसंग में स्पष्टीकरण किया गया है, कि यदि स्वगण में दर्शन प्रभावक शास्त्र (सन्मत्यादि) का कोई ज्ञाता न हो, तो जिस गण में उसका ज्ञाता हो, वहाँ जाकर पढ़ सकता है । इतना ही नहीं, किन्तु दूसरे आचार्य को अपना गुरु या उपाध्याय का स्थान भी हेतु-विद्या के लिए दे, तो अनुचित नहीं समझा जाता। ऐसा करने के पहले आवश्यक है, कि वह अपने गुरु या उपाध्याय की आज्ञा ले ले। बृहत्कल्पभाष्य में कहा है कि
"विज्जामंतनिमित्ते हेऊ सत्थट्ट दसणढाए" बृहत्कल्पभाष्य गा० ५४७३ । अर्थात् दर्शन प्रभावना की दृष्टि से विद्या-मन्त्र-निमित्त और हेतु शास्त्र के अध्ययन के लिए कोई साधु दूसरे आचार्योपाध्याय को भी अपना आचार्य वा उपाध्याय बना सकता है।
अथवा जब कोई शिष्य देखता है, कि तर्क-शास्त्र में उस के गुरु की गति न होने से दूसरे मत वाले उन से वाद करके उन तर्कानभिज्ञ गुरु को नीचा गिराने का प्रयत्न करते हैं, तब वह गुरु की अनुज्ञा लेकर गणान्तर में तर्कविद्या में निपुण होने के लिए जाता है या स्वयं गुरु उसे भेजते हैं।" अन्त में वह तर्क निपुण होकर प्रतिवादियों को हराता है
और इस प्रकार दर्शनप्रभावना करता है । ___ यदि किसी कारण से आचार्य दूसरे गण में जाने की अनुज्ञा न देते हों, तब भी दर्शन प्रभावना की दृष्टि से बिना आज्ञा के भी वह दूसरे गण में जाकर वादविद्या में कुशलता प्राप्त कर सकता है। सामान्यतः अन्य आचार्य बिना आज्ञा के आए हुए शिष्य को स्वीकार नहीं कर सकते किन्तु ऐसे प्रसंग में वह भी उसे स्वीकार करके दर्शन प्रभावना की दृष्टि से तर्क-विद्या पढ़ाने के लिए बाध्य हो जाते हैं।
४ वही ५४२५ । " वही ५४२६-२७। ६ वही गा० ५४३६ ।
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