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________________ १६४ प्रागम-युग का जैन-दर्शन स्वतन्त्र भाव से नहीं, किन्तु गणधरप्रणीत आगम के साथ अविसंवाद के कारण है। __ कालक्रम से जैन संघ में वीर नि० १७० वर्ष के बाद श्रुत केवली का भी अभाव हो गया और केवल दशपूर्वधर ही रह गए, तब उनकी विशेष योग्यता को ध्यान में रखकर जैन संघ ने दशपूर्वधरग्रथित ग्रन्थों को भी आगम में शामिल कर लिया। इन ग्रन्थों का भी प्रामाण्य स्वतन्त्रभाव से नहीं, किन्तु गणधरप्रणीत आगम के साथ अविरोधमूलक है। जैनों की मान्यता है कि चतुर्दशपूर्वधर वे ही साधक हो सकते हैं, जिनमें नियमत: सम्यग्दर्शन होता है ।५४ अतएव उनके ग्रन्थों में आगम विरोधी बातों की संभावना ही नहीं है। __आगे चलकर ऐसे कई आदेश जिनका समर्थन किसी शास्त्र से नहीं होता है, किन्तु जो स्थविरों ने अपनी प्रतिभा के बल से किसी विषय में दी हुई संमतिमात्र हैं, उनका समावेश भी अंगबाह्य आगम में कर लिया गया है । इतना ही नहीं कुछ मुक्तकों को भी उसी में स्थान प्राप्त है । ____ अभी तक हमने आगम के प्रामाण्य-अप्रामाण्य का जो विचार किया है. वह वक्ता की दृष्टि से । अर्थात् किस वक्ता के वचन को व्यवहार में सर्वथा प्रमाण माना जाए। किन्तु आगम के प्रामाण्य या अप्रामाण्य का एक दूसरी दृष्टि से भी अर्थात् श्रोता की दृष्टि से भी आगमों में विचार हुआ है, उसे भी बता देना आवश्यक है। शब्द तो निर्जीव हैं और सभी सांकेतिक अर्थ के प्रतिपादन की योग्यता रखते हैं। अतएव सर्वार्थक भी हैं। ऐसी स्थिति में निश्चय दृष्टि से विचार करने पर शब्द का प्रामाण्य जैसा मीमांसक मानता है स्वतः नहीं किन्तु प्रयोक्ता के गुण के कारण सिद्ध होता है । इतना ही नहीं ५४. बृहत्० १३२। ५५. बृहत् १४४ और उसकी पादटीप । विशेषा० ५५० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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