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________________ १५६ आगम-युग का जैन दर्शन या माहेन्द्र सम्बन्धी या और कोई प्रशस्त उत्पात - इनको देखकर जब सिद्ध किया जाए कि सुवृष्टि होगी तो यह अनागतकालग्रहण है । उक्त लक्षणों का विपर्यय देखने में आवे तो तीनों कालों के ग्रहण में भी विपर्यय हो जाता है, अर्थात् अतीत कुवृष्टि का, वर्तमान दुर्भिक्ष का और अनागत कुवृष्टि का अनुमान होता है, यह भी अनुयोगद्वार में सोदाहरण दिखाया गया है । कालभेद से तीन प्रकार का अनुमान होता है, इस मत को चरक ने भी स्वीकार किया है "प्रत्यक्षपूर्वं त्रिविधं त्रिकालं चाऽनुमीयते । वह्निनिगूढो धूमेन मैथुनं गर्भदर्शनात् ॥ २१ ॥ एवं व्यवस्यन्त्यतीतं बीजात् फलमनागतम् । दृष्टा बीजात् फलं जातमिहैव व सदृशं बुधाः " ॥ २२ ॥ चरक सूत्रस्थान श्र० ११ अनुयोगद्वारगत अतीतकालग्रहण और अनागतकालग्रहण के दोनों उदाहरण माठर में पूर्ववत् के उदाहरण रूप से निर्दिष्ट हैं, जब कि स्वयं अनुयोग ने अभ्र-विकार से वृष्टि के अनुमान को शेषवत् माना है, तथा न्यायभाष्यकारने नदीपूर से भूतवृष्टि के अनुमान को शेषवत् माना है । अवयव चर्चा : अनुमान प्रयोग या न्यायवाक्य के कितने अवयव होने चाहिए इस विषय में मूल आगमों में कुछ नहीं कहा गया है । किन्तु आचार्य भद्रबाहुने दशवकालिकनिर्युक्ति में अनुमानचर्चा में न्यायवाक्य के अवयवों की चर्चा की है । यद्यपि संख्या गिनाते हुए उन्होंने पांच " और दश १९ 35 " श्रब्भस्स निम्मलत कसिणा या गिरी सविज्युना मेहा । यणियं वा उब्भामी संभा रत्ता पणिठ्ठा (द्धा) या ॥ १॥ वारुणं वा महिंदं वा श्रण्णयरं वा पसत्यं उपायं पासित्ता तेणं साहिज्जइ जहा - सुवुट्ठी भविस्सइ ।" 30 "एएसि चैव विवज्जासे तिविहं गहणं भवइ, तं जहा" इत्यादि । 36 दश० नि० ५० । गा० ८६ से ९१ । 39 गा० ५० गा० ६२ से । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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