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१४८ श्रागम-युग का जैन दर्शन
१. पूर्ववत्
२. शेषवत्
३. दृष्टसाधर्म्यवत्
प्राचीन चरक, न्याय, बौद्ध ( उपायहृदय पृ० १३ ) और सांख्य ने भी अनुमान के तीन भेद तो बताए हैं । उनमें प्रथम के दो तो वही हैं, जो अनुयोग में हैं । किन्तु अन्तिम भेद का नाम अनुयोग की तरह दृष्टसाधर्म्यवत् न होकर सामान्यतोदृष्ट है ।
प्रस्तुत में यह बता देना आवश्यक है कि अनुयोग में अनुमान के स्वार्थ और परार्थ ऐसे दो भेद नहीं किए गए। अनुमान को इन दो भेदों में विभक्त करने की परम्परा बाद की है । न्यायसूत्र और उसके भाष्य तक यह स्वार्थ और परार्थ ऐसे भेद करने की परम्परा देखी नहीं जाती । बौद्धों में दिग्नाग से पहले के मैत्रेय, असंग और वसुबन्धु के ग्रन्थों में भी वह नहीं देखी जाती । सर्वप्रथम बौद्धों में दिग्नाग के प्रमाणसमुच्चय में और वैदिकों में प्रशस्तपाद के भाष्य में ही स्वार्थ- परार्थ भेद देखे जाते हैं"। जैनदार्शनिकों ने अनुयोगद्वार स्वीकृत उक्त तीन भेदों को स्थान नहीं दिया है, किन्तु स्वार्थ- परार्थरूप भेदों को ही अपने ग्रन्थों में लिया है, इतना ही नहीं, बल्कि तीन भेदों की परम्परा का कुछ ने खण्डन भी किया है" ।
पूर्ववत् - - पूर्ववत् की व्याख्या करते हुए अनुयोग द्वार में कहा
है कि
१६ चरक सूत्रस्थान में अनुमान का तीन प्रकार है, यह कहा है, किन्तु नाम नहीं दिए-- देखो सूत्रस्थान अध्याय ११. श्लो० २१, २२; न्यायसूत्र १.१.५ । मूल सांख्यकारिका में नाम नहीं है केवल तीन प्रकार का उल्लेख है का० ५ । किन्तु माठर ने तीनों के नाम दिए हैं। तीसरा नाम मूलकार को सामान्यतोदृष्ट ही इष्ट है - का०६ ।
१७ प्रमाणसमु० २.१ । प्रशस्त० पृ० ५६३, ५७७ ।
१८ न्यायवि० ३४१, ३४२ । तत्त्वार्थश्लो० पृ० २०५ । स्याद्वादर० पृ० ५२७ ।
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