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प्रमाण-खण्ड
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अनुयोगद्वार के प्रारम्भ में ही ज्ञानों के पांच भेद बताए हैं१ आभिनिबोधिक, २ श्रुत, ३ अवधि, ४ मनःपर्यय और ५ केवल । ज्ञानप्रमाण के विवेचन के प्रसंग में प्राप्त तो यह था कि अनुयोगद्वार के संकलनकर्ता उन्हीं पांच ज्ञानों को ज्ञानप्रमाण के भेदरूप से बता देते। . किन्तु ऐसा न करके उन्होंने नैयायिकों में प्रसिद्ध चार प्रमाणों को ही ज्ञान प्रमाण के भेद रूप से बता दिया है । ऐसा करके उन्होंने सूचित किया है कि दूसरे दार्शनिक जिन प्रत्यक्षादि चार प्रमाणों को मानते हैं वस्तुतः वे ज्ञानात्मक हैं और गुण हैं—आत्मा के गुण हैं।
इस समन्वय से यह भी फलित हो जाता है कि अज्ञानात्मक सन्निकर्ष इन्द्रिय आदि पदार्थ प्रमाण नहीं हो सकते। अतएव हम देखते हैं कि सिद्धसेन से लेकर प्रमाणविवेचक सभी जैन दार्शनिकों ने प्रमाण के लक्षण में ज्ञानपद को अवश्य स्थान दिया है। इतना होते हुए भी जैन संमत पांच ज्ञानों में चार प्रमाण का स्पष्ट समन्वय करने का प्रयत्न अनुयोगद्वार के कर्ता ने नहीं किया है। अर्थात् यहाँ भी प्रमाणचर्चा और पंच ज्ञानचर्चा का पार्थक्य सिद्ध ही है। शास्त्रकार ने यदि प्रमाणों को पंच ज्ञानों में समन्वित करने का प्रयत्न किया होता, तो उनके मत से अनुमान और उपमान प्रमाण किस ज्ञान में समाविष्ट है यह अस्पष्ट नहीं रहता । यह वात नीचे के समीकरण से स्पष्ट होती है
प्रमाण
प्रत्यक्ष
ज्ञान १ (अ) इन्द्रियजमति (ब) मनोजन्यमति
श्रुत अवधि मनःपर्यय केवल ।
आगम
प्रत्यक्ष
अनुमान उपमान
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