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________________ १३६ ने न्याय- परम्परा सम्मत चार प्रमाणों के स्थान में सांख्यादिसम्मत तीन ही प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम को माना है । आचार्य हरिभद्र को भी ये ही तीन प्रमाण मान्य हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि चरकसंहिता में कई परम्पराएँ मिल गई हैं क्योंकि कहीं तो उसमें चार प्रमाणों का वर्णन है और कहीं तीन का तथा विकल्प से दो का भी स्वीकार पाया जाता है । ऐसा होने का कारण यह है कि चरकसंहिता किसी एक व्यक्ति की रचना न होकर कालक्रम से संशोधन और परिवर्धन होते-होते वर्तमान रूप बना है । यह बात निम्न कोष्ठक से स्पष्ट हो जाती है आप्तोपदेश सूत्रस्थान अ० ११. विमानस्थान अ० ४ अ०८ 33 " "" 11 " 11 """ " ७ Jain Education International 13 23 ऐतिह्य (आप्तोपदेश ),, X उपदेश प्रत्यक्ष अनुमान युक्ति X औपम्य X X "1 प्रमाण - खण्ड " 11 "" यही दशा जैन आगमों की है । उस में भी चार और लीन प्रमाणों की परंपराओं ने स्थान पाया है । For Private & Personal Use Only " स्थानांग के उक्त सूत्र से भी पांच ज्ञानों से प्रमाणों का पार्थक्य सिद्ध होता ही है । क्योंकि व्यवसाय को पांच ज्ञानों से संबद्ध न कर प्रमाणों से संबद्ध किया है । 31 फिर भी आगम में ज्ञान और प्रमाण का समन्वय सर्वथा नहीं हुआ है यह नहीं कहा जा सकता । उक्त तीन प्राचीन भूमिकाओं में असमन्वय होते हुए भी अनुयोगद्वार से यह स्पष्ट है, कि बाद में जैनाचार्यों ने ज्ञान और प्रमाण का समन्वय करने का प्रयत्न किया है । किन्तु यह भी ध्यान में रहे कि पंच ज्ञानों का समन्वय स्पष्ट रूप से नहीं है, पर अस्पष्ट रूप से है । इस समन्वय के प्रयत्न का प्रथम दर्शन अनुयोग में होता है । न्यायदर्शनप्रसिद्ध चार प्रमाणों का ज्ञान में समावेश करने का प्रयत्न श्रनेकान्तज० टी० पृ० १४२, अनेकान्तज० पृ० २१५ । www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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