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तीन
ज्ञान चर्चा की जैनदृष्टि :
जैन आगमों में अद्वैतवादियों की तरह जगत् को वस्तु और अवस्तु — माया में तो विभक्त नहीं किया है, किन्तु संसार की प्रत्येक वस्तु में स्वभाव और विभाव सन्निहित है, यह प्रतिपादित किया है । वस्तु का परानपेक्ष जो रूप है, वह स्वभाव है, जैसे आत्मा का चैतन्य, ज्ञान, सुख आदि, और पुद्गल की जड़ता । किसी भी काल में आत्मा ज्ञान या चेतना रहित नहीं और पुद्गल में जड़ता भी त्रिकालाबाधित है । वस्तु का जो परसापेक्षरूप है, वह विभाव है, जैसे आत्मा का मनुष्यत्व, देवत्व आदि और पुद्गल का शरीररूप परिणाम । मनुष्य को हम न तो कोरा आत्मा ही कह सकते हैं और न कोरा पुद्गल ही । इसी तरह शरीर भी केवल पुद्गलरूप नहीं कहा जा सकता । आत्मा का मनुष्यरूप होना परसापेक्ष है और पुद्गल का शरीररूप होना भी परसापेक्ष है । अतः आत्मा का मनुष्यरूप और पुद्गल का शरीररूप ये दोनों क्रमश आत्मा और पुद्गल के विभाव हैं ।
स्वभाव ही सत्य है और विभाव मिथ्या है, जैनों ने कभी यह प्रतिपादित नहीं किया। क्योंकि उनके मत में त्रिकालाबाधित वस्तु ही सत्य है, ऐसा एकान्त नहीं । प्रत्येक वस्तु चाहे वह अपने स्वभाव में ही स्थित हो, या विभाव में स्थित हो सत्य है । हाँ, तद्विषयक हमारा ज्ञान मिथ्या हो सकता है, लेकिन वह भी तब, जब हम स्वभाव को विभाव समझें या विभाव को स्वभाव । तत् में अतत् का ज्ञान होने पर ही ज्ञान में मिथ्यात्व की संभावना रहती है ।
विज्ञानवादी बौद्धों ने प्रत्यक्ष ज्ञान को वस्तुग्राहक और साक्षात्कारात्मक तथा इतर ज्ञानों को अवस्तुग्राहक, भ्रामक, अस्पष्ट और असाक्षात्कारात्मक माना है । जैनागमों में इन्द्रियनिरपेक्ष एवं केवल आत्मसापेक्ष ज्ञान को ही साक्षात्कारात्मकं प्रत्यक्ष कहा गया है, और
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