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________________ १२४ आगम-युग का जैन-दर्शन अर्थ की उपेक्षा की गई है, यह स्पष्ट है । द्रव्य निक्षेप का विषय द्रव्य होता है अर्थात् भूत और भावि-पर्यायों में जो अनुयायी द्रव्य है उसी की विवक्षा से जो व्यवहार किया जाता है, वह द्रव्य निक्षेप है। जैसे कोई जीव इन्द्र होकर मनुष्य हुआ या मरकर मनुष्य से इन्द्र होगा तब वर्तमान मनुष्य अवस्था को इन्द्र कहना यह द्रव्य इन्द्र है। इन्द्रभावापन्न जो जीव द्रव्य था वही अभी मनुष्यरूप है अतएव उसे मनुष्य न कह करके इन्द्र कहा गया है। या भविष्य में इन्द्रभावापत्ति के योग्य भी यही मनुष्य है, ऐसा समझ कर भी उसे इन्द्र कहना यह द्रव्य निक्षेप है । वचन व्यवहार में जो हम कार्य में कारण का या कारण में कार्य का उपचार करके जो औपचारिक प्रयोग करते हैं, वे सभी द्रव्यान्तर्गत हैं । १०८ व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थ उस शब्द का भाव निक्षेप है। परमैश्वर्य संपन्न जीव भाव इन्द्र है अर्थात् यथार्थ इन्द्र है ।१०९ वस्तुतः जुदे-जुदे शब्द व्यवहारों के कारण जो विरोधी अर्थ उपस्थित होते हैं, उन सभी अर्थों को विवक्षा को समझना और अपने इष्ट अर्थ का बोध करना-कराना, इसीके लिए ही भगवान ने निक्षेपों की योजना की है यह स्पष्ट है । जैनदार्शनिकों ने इस निक्षेपतत्त्व को भी नयों की तरह विकसित किया है। और इन निक्षेपों के सहारे शब्दाद्वैतवाद आदि विरोधी वादों का समन्वय करने का प्रयत्न भी किया है । १०८ "भूतस्य भाविनो का भावस्य हि कारणं तु यल्लोके । तत् द्रव्यं तत्वज्ञः सचेतनाचेतनं कथितम् ॥ अनु० टी० पृ० १४ । १०९ "भावो विवक्षितक्रियाऽनुभूतियुक्तो हि वै समाल्यातः । सर्वनं रिन्द्रादिवदिहेन्दनाविक्रियानुभवात् ॥" अनु० टी० पृ० २८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001049
Book TitleAgam Yugka Jaindarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1990
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Education, B000, & B999
File Size17 MB
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