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आगम-युग का जैन दर्शन
को स्थान मिले यह स्वाभाविक ही है । भंगों के साहित्यिक इतिहास की ओर ध्यान दें, तो हमें सर्व प्रथम ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में भंगों का कुछ आभास मिलता है । उक्त सूक्त के ऋषि के सामने दो मत थे। कोई जगत् के आदि कारण को सत् कहते थे, तो दूसरे असत् । इस प्रकार ऋषि के सामने जब समन्वय की सामग्री उपस्थित हुई, तब उन्होंने कह दिया वह सत् भी नहीं असत् भी नहीं । उन का यह निषेध मुख उत्तर भी एक पक्ष में परिणत हो गया । इस प्रकार, सत्, असत् और अनुभय ये तीन पक्ष तो ऋग्वेद जितने पुराने सिद्ध होते हैं ।
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उपनिषदों में आत्मा या ब्रह्म को ही परम तत्त्व मान करके अन्तर-बाह्य सभी वस्तुओं को उसी का प्रपञ्च मानने की प्रवृत्ति हुई,
तव यह स्वाभाविक है कि अनेक विरोधों की भूमि ब्रह्म या आत्मा ही
बने । इसका परिणाम यह हुआ कि उस आत्मा, ब्रह्म या ब्रह्मरूप विश्व को ऋषियों ने अनेक विरोधी धर्मों से अलंकृत किया । पर जब उन विरोधों के तार्किक समन्वय में भी उन्हें सम्पूर्ण संतोष लाभ न हुआ तव उसे वचनागोचर - अवक्तव्य - अव्यपदेश्य बता कर व अनुभवगम्य कह कर उन्होंने वर्णन करना छोड़ दिया । यदि उक्त प्रक्रिया को ध्यान में रखा जाए तो " तदेजति तन्नैजति" ( ईशा ० ५ ), अणोरणीयान् महतो महीयान् " ( कठो० १.२.२० श्वेता० ३.२० ) “संयुक्तमेतत् क्षरमक्षरं च व्यक्ताव्यक्तं भरते विश्वमीशः । अनीशश्चात्मा” (श्वेता० १.८ ), "सदसद्वरेण्यम्” (मुण्डको० २.२.१) इत्यादि उपनिषद्वाक्यों में दो विरोधी धर्मों का स्वीकार किसी एक ही धर्मी में अपेक्षा भेद से किया गया है, यह स्पष्ट हो जाता है ।
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विधि और निषेध दोनों पक्षों का विधिमुख से समन्वय उन वाक्यों में हुआ है । ऋग्वेद के ऋषि ने दोनों विरोधी पक्षों को अस्वीकृत करके निषेधमुख से तीसरे अनुभय पक्ष को उपस्थित किया है । जब कि उपनिषदों के ऋषियों ने दोनों विरोधी धर्मों के स्वीकार के का समन्वय कर के उक्त वाक्यों में विधि- मुख से चौथे
द्वारा उभयपक्ष उभयभंग का
आविष्कार किखा ।
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