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प्रमेय-खण्ड
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सदा नहीं रहते । द्रव्य परिणामों का स्वीकार और त्याग करता है। वस्तुतः यों कहना चाहिए कि द्रव्य, फिर भले हो वह जीव हो या अजीव स्व-स्व परिणामों में कालभेद से परिणत होता रहता है। इसीलिए वे द्रव्य के पर्याय या परिणाम कहे जाते हैं ।
विशेष भी पर्याय हैं और परिणाम भी पर्याय हैं, क्यों कि विशेष भी स्थायी नहीं और परिणाम भी स्थायी नहीं । तिर्यग्सामान्य जीवद्रव्य स्थायी है. किन्तु एक काल में वर्तमान पाँच मनुष्य जिन्हें हम जीवद्रव्य के विशेप कहते हैं स्थायी नहीं हैं। इसी प्रकार एक ही जीव के क्रमिक नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देवरूप परिणाम भी स्थायी नहीं । अतएव परिणाम और विशेष दोनों अस्थिरता के कारण वस्तुतः पर्याय ही हैं । यदि दैशिक विस्तार की ओर हमारा ध्यान हो, तो नाना द्रव्यों के एक कालीन नाना पर्यायों की ओर हमारा ध्यान जाएगा पर कालविस्तार की ओर हम ध्यान दें तो एक द्रव्य के या अनेक द्रव्यों के क्रमवर्ती नाना पर्यायों की ओर हमारा ध्यान जाएगा । दोनों परिस्थितियों में हम द्रव्यों के किसी ऐसे रूप को देखते हैं, जो रूप स्थायी नहीं होता । अतएव उन अस्थायी दृश्यमान रूपों को पर्याय ही कहना उचित है। इसीलिए आगम में विशेषों को तथा परिणामों को पर्याय कहा गया है । हम जिन्हें काल दृष्टि से परिणाम कहते हैं, वस्तुतः वे ही देश की दृष्टि से विशेष हैं ।
भगवान् बुद्ध ने पर्यायों को प्राधान्य देकर द्रव्य जैसी कालिक स्थिर वस्तु का निषेध किया । इसीलिए वे ज्ञानरूप पर्याय का अस्तित्व स्वीकार करते हैं, पर ज्ञान पर्यायविशिष्ट आत्मद्रव्य को नहीं मानते । इसी प्रकार रूप मानते हुए भी वे रूपवत् स्थायीद्रव्य नहीं मानते। इसके विपरीत उपनिषदों में कूटस्थ ब्रह्मवाद का आश्रय लेकर उसके दृश्यमान विविध पर्याय या परिणामों को मायिक या अविद्या का विलास कहा है ।
इन दोनों विरोधी वादों का समन्वय द्रव्य और पर्याय दोनों की पारमार्थिक सत्ता का समर्थन करने वाले भगवान् महावीर के वाद में है । उपनिपदों में प्राचीन सांख्यों के अनुसार प्रकृति परिणामवाद है,
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