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________________ २२ પ્રસ્તાવના सकता है इसलिये जैन पंडितोंकों चाहिये कि ये कुछ खोजभाल करके ऐसे प्रमाण विद्वानोंके सामने प्रकट करें जिनसे जैन धर्मकी प्राचीनता सर्व सामान्य तर्क प्रणालीसे प्रस्थापित हो। और उसके द्वारा भारतीय आर्य संस्कृतिका प्राचीनत्व सुदृढ हो। भारतीय संस्कृतिकी ओर पाश्चात्य विद्वान बहुत साशंकतासे देखते थे और देखते हैं। किन्तु संस्कृत साहित्य और विशेषतः वैदिक वाङ्मयके प्रकाशन, परीक्षण और तुलनात्मक अभ्याससे वह साशंकता बहुत कुछ कमती होती जा रही है। और भारतीय संस्कृतिकी स्वयंपूर्ण मौलिकता तथा प्राचीनता प्रस्थापित हो रही है। मैं इस छोटेसे लेख द्वारा यही बताना चाहता हूं की जैन पंडित इस कार्य में पूर्ण सहकार करके यश के अधिकारी हो सकते हैं। 'वेदाङ्ग ज्योतिष' नामका एक छोटासा ज्योतिष ग्रंथ विद्यमान संस्कृत ज्योतिष ग्रंथों में प्राचीन तम समझा जाता है। उसकी भाषा प्राचीन संकेतमय और समझनेको इतनी क्लिष्ट है की इ. स. १८७७ से आजतक इस ३५-४० श्लोकवाले छोटेसे ग्रंथका, डॉ. थीबो, महामहोपाध्याय सुधाकर द्विवेदी, ज्यो. शं. बा. दीक्षित, लो. टिळक इत्यादी विद्वानों के अनेकानेक प्रयत्नों पर भी संपूर्णतः अर्थ नहीं लग सका। किंतु आजतक अशक्यप्रायः समझा गया यह चमत्कारस्वरूप कार्य महामहोपाध्याय डॉ. शामशास्त्री (मैसोर) ने सरलतासे कर डाला और वो भी जैन ज्योतिष ग्रंथोंकी सहायतासे । सूर्यपजति ज्योतिष्करंडक और काललोकप्रकाश यह वे तीन जैन ग्रंथ हैं। डॉ. महाशयके ध्यान में यह आया की वेदांग ज्योतिषकी पद्धति और उपर्युक्त जैन ज्योतिष ग्रंथोंकी पद्धतिमें स्पष्ट साम्य है और वेदांग ज्योतिषके जो जो श्लोक आज तक दुर्बोध समसकर भूतपूर्व विद्वानोंने छोड दिये थे वे इन जैन ग्रंथों की सहायतासे सुगम और सुसंगत ही नहीं किंतु अर्थपूर्ण प्रतीत होते हैं। इस तरहसे अगम्य वेदांग ज्योतिषको संपूर्ण तथा सुगम करनेवाले प्रथम संशोधक, ऐसा डॉ. शामशास्त्रीका सुविख्यात नाम जैन ग्रंथोंकी सहायतासे ही हुआ है। इस उपर्युक्त वेदाङ्ग ज्योतिषके संपादन कार्यमें एक छोटीसी विसंगतता ज्योतिष करंडकके श्लोक २८८ के विषयमें हो गई है। " उक्तं चैतत् ज्योतिष करंडे (प. १.६ पद्य २८८)लगगं च दक्षिणायनविसुवेस वि अस्स उत्तरं अयणे। लगं साईविसुवेसु पञ्चमुवि दक्षिणं अयणे ।। २८८॥ छाया-लग्नं च दक्षिणायनविषुवेषु अपि अश्वे उत्तरमयणे । लग्नं स्वाति विषुवेषु पञ्चस्वपि दक्षिणायने । दक्षिणायनगतेषु पञ्चस्वपि विषुवेषु अश्वे अश्विनीनक्षत्रे लग्नं भवति ।" इत्यादि । वेदाङ्ग ज्योतिष पृष्ठ ५० इस श्लोककी छाया और टीका मलयगिरिकृत है और उसका अंग्रेजी अनुवाद डॉ. शामशास्त्रीने ऐसा किया है। "The Lagna of the five Vishuwas or equinoctical days in a yuga is the rise of the Ashwini Nakshatra in the Uttarayana and that in the five Dakshinayanas is the rise of the Swati Nakshatra. -वेदांग ज्योतिष-पृ. ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001046
Book TitlePainnay suttai Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Amrutlal Bhojak
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1989
Total Pages166
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_anykaalin
File Size11 MB
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