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________________ १३४ [सु० ३४४ उत्तरऽज्झयणाणि ३४४. जहाऽऽइण्ण समारूढे सूरे दढपरक्कमे । उभओ नंदिघोसेणं एवं भवइ बहुस्सुए ॥ १७॥ ३४५. जहाँ करेणुपरिकिन्ने कुंजरे सट्ठिहायणे । बलवंते अप्पडिहए एवं भवइ बहुस्सुए ॥१८॥ ३४६. जहा से तिक्खंसिंगे जायक्खंधे विरायई। वसहे जूहाहिवई एवं भवइ बहुस्सुए ॥१९॥ ३४७. जहा से तिक्खदाढे उदग्गे दुप्पहंसए। सीहे मियाण पवरे एवं भवइ बहुस्सुए ॥२०॥ ३४८. जहा से वासुदेवे संख-चक्क-गदाधरे। अप्पडिहयबले जोहे एवं भवइ बहुस्सुए ॥२१॥ ३४९. जहा से चाउरते चक्कवट्टी महिड्ढिए। चोईसरयणाहिवई एवं भवइ बहुस्सुए ॥ २२॥ ३५०. जहा से सहस्सक्खे वजपाणी पुरंदरे । सक्के देवाहिवई एवं भवइ बहुस्सुए ॥२३॥ ३५१. जहा से तिमिरविद्धंसे उत्तिर्दृते दिवौकरे । जलंते इव तेएणं एवं भवइ बहुस्सुए ॥ २४ ॥ ३५२. जहा से उडुवई चंदे नक्खत्तपरिवारिए । पडिपुण्णे पुण्णमासीए एवं भवइ बहुस्सुए ॥२५॥ ३५३. जहा से सौमाइयाणं कोट्ठागारे सुरक्खिए । नाणाधन्नपडिपुन्ने एवं भवइ बहुस्सुए ॥२६॥ २० . १. आकीर्णम् इत्यर्थः ॥ २. १७ तः ३० गाथानां ‘एवं भवइ बहुस्सुए' इत्येतच्चतुर्थचरणस्थाने ला १ ला २ पु० प्रतिषु ‘एवं०' ‘एवं भ०' अथवा 'एवं भव०' इत्यात्मकः संक्षिप्तः पाठोऽस्ति ॥ ३. हा से क° सं १ सं २ शापा०॥ ४. क्खसंगे ला २॥ ५. जायखंधे विरायइ सं १ सं २॥ ६. °वे य सं सं १॥ ७. अपडि° सं १॥ ८. महड्ढिए शापा० ॥ ९. चउदस ला १ ला २ पु० ह. ॥ १०. °रद्धंसे सं १॥ ११. उच्चिढें शा०॥ १२. °वायरे सं १ विना, नवरं वागरे पा०॥ १३. सामाजिकानां लोकानाम् इत्यर्थः। सामाइयंगाणं पाटीपा०, अतस्यादिधान्यानाम् इत्यर्थः॥ १४. °याणं ति को सं १॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001026
Book TitleDasveyaliya Uttarjzhayanaim Avassay suttam
Original Sutra AuthorShayyambhavsuri, Pratyekbuddha, Ganadhar
AuthorPunyavijay, Amrutlal Bhojak
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1977
Total Pages759
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, agam_aavashyak, agam_dashvaikalik, & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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