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________________ आत्म वल्लभ संस्कृति मन्दिर स्मारक-स्थापत्य एवं प्रवृत्तियां दिल्ली से पंजाब जाने वाले राष्ट्रीय मार्ग नं० एक के 20 वें कि. मी. पर, जो गगनचुम्बी, अद्वितीय एवं विशाल भवन उभर कर अब दृष्टिगोचर होने लगा है, उसे विजय वल्लभ स्मारक कहते हैं। युगद्रष्टा जैनाचार्य श्रीमद्विजय वल्लभ सूरीश्वरजी महाराज के समाज के ऊपर अनन्त उपकार हैं, उन की पुण्य स्मृति को अमर रखने के लिए, उनकी योशागाथानुरूप, करोड़ों रूपयों की लागत से यह स्मारक पत्थर द्वारा निर्मित हुआ है, जो सदियों तक अक्षुण्ण रहेगा। इसकी योजना विविधलक्षी है और इसके माध्यम से सातों क्षेत्र का सिंचन हो रहा है। उनकी आज्ञानुवर्तिनी साध्वी श्री मृगावतीजी इस बुहुमुखी योजना के प्रणेता थे। जैनाचार्य श्रीमद्विजय वल्लभ सूरीश्वरजी महाराज, इस शती के एक महान् श्वेताम्बर जैन सन्त हुए हैं। बड़ौदा के एक जैन परिवार में आपश्रीजी का जन्म सन् 1870 में हुआ था। किशोरावस्था में ही वे महान् क्रान्तिकारी जैनाचार्य श्रीमद्विजयानन्द सूरिजी (आत्मारामजी) के पास दीक्षा ग्रहण कर जैन साधु बन गये तथा जैन आगमों का गहन अध्ययन किया। विजयानन्द सूरि जी के देवलोक-गमन के पश्चात् उन्होंने जैन संघ की बागडोर संभाली तथा संगठन, शिक्षा और साहित्य की अनूठी सेवा की। वे मध्यम वर्ग एवं नारी उत्थान के मसीहा बने तथा उन्होंने स्वावलम्बन पर बल दिया। श्री महावीर जैन विद्यालय बम्बई (जिसकी आज अनेक शाखाएं हैं) की स्थापना उन्हींकी प्रेरणा तथा आशीर्वाद से हुई थी। इसके अतिरिक्त गुजरांवाला में श्री आत्मानंद जैन गुरुकुल तथा अम्बाला में श्री आत्मानंद जैन कालेज, शिक्षा की दिशा में उनके द्वारा किए गए अनेक कार्यों के अन्य प्रतिभाशाली उदाहरण हैं। उन्होने स्थान-स्थान पर स्कूल, कालेज, विद्यालय, छात्रालय तथा गुरुकुल एवं प्रशिक्षण केन्द्र इत्यादि खुलवाकर समाज को नया मोड़ दिया। निश्चय ही वे प्रथम जैन साधु थे, जिन्होंने शिक्षा क्षेत्र को प्राथमिकता दी। हजारों छात्र तथा छात्रायें उनके उपदेश द्वारा स्थापित संस्थाओं में पढ़कर आज देश-विदेश में सफल धर्ममय जीवन यापन कर रहे हैं। धर्मदर्शन पर शोध कार्य भी उनके जीवन का लक्ष्य था। अतः उन्होने ग्रंथ भण्डार भी खुलवाए। उनका विश्वास था कि शोध संस्थानों एवं सुरूचिपूर्ण साहित्य द्वारा ही भगवान महावीर के अमर सिद्धान्त, अहिंसा, अनेकान्त तथा अपरिग्रह का सर्वत्र प्रचार सम्भव होगा। श्वेताम्बर जैन कांफ्रेंस जैसे अखिल भारतीय संगठन के भी वे ही प्रेरणा स्रोत थे। 1954 में, बम्बई महानगर में उनका देवलोक गमन हो गया था। भायखला जैन मन्दिर में उनकी समाधि बनाई गई है। स्वतंत्रता संग्राम की राष्ट्रीय धारा के साथ गुरुदेव ने अपने आपको आत्मसात कर दिया था। जीवनपर्यन्त उन्होंने खादी पहनी और दिखावे तथा दहेज जैसी कुप्रथाओं के विरूद्ध उपदेश दिया। जन्म से गुजराती होने पर भी उन्होंने हिन्दी भाषा का प्रचार और प्रसार किया। वे सदैव अपने व्याख्यान हिन्दी भाषा में दिया करते थे और उनकी समस्त रचनाएं हिन्दी भाषा में हैं। उनका चरित्र अति निर्मल तथा जीवन अत्यंत संयमी था। लोकेषणा से वे कोसों दूर थे। जीवन के अन्तिम क्षण तक वे आत्मोत्थान करते हुए लोक कल्याण के कार्यों की प्रेरणा समाज को देते रहे। भारत विभाजन के समय वे गुजरांवाला (पाकिस्तान) में विराजमान थे। अपना जीवन जोखिम ३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001021
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Dharmachandvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1990
Total Pages737
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Story, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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