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________________ एक अनुशीलन (१२) वृद्ध–वृद्धावस्था में संन्यास ग्रहण करने में विश्वास वाले। ऋषभदेव के समय में उत्पन्न होने के कारण ये समी लिंगियों२०६ में आदिलिंगी२०७ कहे जाते हैं। इसलिए इन्हें वृद्ध कहा है। (१३) श्रावक-धर्मशास्त्र श्रवण करने वाला ब्राह्मण। 'श्रावक' शब्द जैन और बौद्ध दोनों ही परम्पराओं में विशेष रूप से प्रचलित रहा है। वह वर्तमान में भी जैन और बौद्ध उपासकों के अर्थ में व्यवहृत होता है। यह वैदिक परम्परा के ब्राह्मणों के लिए कब प्रयुक्त हुआ, यह चिन्तनीय हैं। श्रमण भगवान् महावीर के समा तीन सौ तिरेसठ पाखण्ड-मत प्रचलित थे। उन अन्य तीर्थों में 'वृद्ध' और 'श्रावक' ये शब्द प्रयुक्त हुए है। २०८ औपपातिक में विशिष्ट साधना में लगे हुए अन्य तीर्थिों का वर्णन करते हुए लिखा है कि कितने ही साधक दो पदार्थ खाकर, कितने ३-४-५ पदार्थ खाकर जीवन निर्वाह करते थे। उनमें वृद्ध और श्रावक का भी उल्लेख२०९ है। अंगुत्तरनिकाय२१° में भी वृद्ध श्रावक का वर्णन है। उस वर्णन से भी यह परिज्ञात होता है कि वृद्ध श्रावक के प्रति जो उद्गार व्यक्त किये गये हैं वह चिन्तन करने के लिए उत्प्रेरित करते हैं। जो हिंसा करने वाला,चोरी, अब्रह्म का सेवन करने वाला, असत्य प्रलापी, सुरा, मेश्य प्रभृति मादक वस्तुएं ग्रहण करने वाला होता है उस निगण्ठबद्ध श्रावक-देवधम्मिक म ये पांच बातें होती है। वह इसी प्रकार होता है जैसे नरक में डाल दिया गया हो। चरक शाक्य. आदि के साथ वृद्ध श्रावक का उ जिससे यह ज्ञात होता है कि उस समय का कोई विशिष्ट सम्प्रदाय होना चाहिए। पर प्रश्न यह है वृद्ध श्रावक यह श्रमण संस्कृति का उपजीवी है या ब्राह्मण संस्कृति का ? प्राचीन ग्रन्थों में केवल नाम का उल्लेख हुआ है, पर उस सम्बन्ध में कोई स्पष्टीकरण नहीं किया गया है। जैन साहित्य के पर्यवेक्षण से यह स्पष्ट परिज्ञात होता है कि वृद्ध श्रावक का उत्स जैन परम्परा में है। बाद में चलकर वह ब्राह्मण परम्परा में अंतर्निहित हो गया। वृद्ध श्रावक का अर्थ दो तरह से चिन्तन करते हैं-पहले में वृद्ध और श्रावक इस तरह पदच्छेद कर वृद्ध और श्रावक दोनों को पृथक-पृथक माना है। दूसरे में वृद्ध श्रावक को एक ही मानकर एक ही सम्प्रदाय का स्वीकार किया है। औपपातिक ११ सूत्र की वृत्ति में वृद्ध अर्थात् तापस श्रावक--ब्राह्मण, तापसों को वृद्ध कहने का तात्पर्य यह है कि भगवान् ऋषभ देव ने चार सहस्र व्यक्तियों के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की थी। किन्तु आहार के अभाव में वे श्रमण धर्म से च्युत होकर तापस बने। भगवान् ऋषभदेव के तीर्थ प्रवर्तन के पूर्व ही तापस परम्परा आरम्भ हो गई थी। इसलिए उन्हें वृद्ध कहते हैं। वैदिक परम्परा में आश्रम-व्यवस्था थी। उसमें पचहत्तर वर्ष के पश्चात् संन्यास ग्रहण करते थे। वृद्धावस्था में संन्यास ग्रहण करने के कारण भी वे वृद्ध कहलाते थे। ब्राह्मणों को श्रावक इसीलिए कहते है कि वे पहले श्रावक ही थे। बाद में ब्राह्मण की संज्ञा से २०६. सूत्रकृतांग नियुक्ति गा. ११९॥ २०७. हिस्टारिकल कलीनिंग्स, B. C. Lahan २०८. अण्णतीर्थिकाश्चरक परिव्राजक-शाक्याजीविक-वृद्धश्रावकप्रभृतयः । निशीथसभाष्य चूर्णि, भाग २, पृ. ११८॥ २०९, औपपातिक सूत्र ३॥ २१०. अंगुत्तरनिकाय (हिन्दी अनुवाद) भाग २, पृ० ४५२ । २११. वृद्धाः तापसा बुद्ध काल एव दीक्षाभ्युपगमात् , आदिदेवकालोत्पन्नत्वेन च सकललिंगिनामाद्यत्वात् , श्रावका धर्मशास्त्रश्रवणाद् ब्राह्मणाः अथवा वृद्ध-श्रावका ब्राह्मणाः। औपपातिक सू. ३८ वृत्ति ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001021
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Dharmachandvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1990
Total Pages737
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Story, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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