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________________ एक अनुशीलन ९५ 1 सम्बन्धित अनेक अनुश्रुतियाँ हैं । बौद्ध जातकों में वाराणसी के वस्त्र, और चन्दन का उल्लेख ३१ है और उसे कपिलवस्तु, बुद्धगया के समान पवित्र स्थान माना है । बुद्ध का और उनकी परंपरा के श्रमणों का वाराणसी से बहुत ही मधुर सम्बंध रहा। उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश भाग वहाँ बिताया ११२ । व्याख्याप्रज्ञप्ति में साढ़े पच्चीस आर्य देशों एवं सोलह महाजनपदों में काशी का उल्लेख है । १११ भारत की दस प्रमुख राजधानियों में एक राजधानी वाराणसी भी थी ११४ । यूवान् चू आंग ने वाराणसी को देश और नगर दोनों माना है। उसने वाराणसी देश का विस्तार ४००० ली और नगर का विस्तार लंबाई में १८ ली और चौड़ाई में ६ ली बतलाया है १३५ । जातक के अनुसार काशी राज्य का विस्तार ३०० योजन था ११६ । वाराणसी काशी जनपद की राजधानी थी। प्रस्तुत नगर वरुणा और असी इन दो नदियों के बीच में अवस्थित था, अतः इसका नाम वाराणसी पड़ा। यह निरुक्त नाम है। भगवान् पार्श्वनाथ आदि का जन्म भी इसी नगर में हुआ था। वाराणसी के बाहर मृत- गंगातीरनामक एक द्रह (हृद ) था जिसमें रंग बिरंगे कमल के फूल महकते थे । विविध प्रकार की मछलियाँ और कूर्म तथा अन्य जलचर प्राणी थे। दो कूर्मों ने द्रह से बाहर निकलकर अपने अंगोपांग फैला दिये। उसी समय दो शृगाल आहार की अन्वेषणा करते हुए वहाँ पहुँचे । कूर्मों ने श्रृगालों की पदध्वनि सुनी, तो उन्होंने अपने शरीर को समेट लिया । शृगालों ने बहुत प्रयास किया पर वे कूर्मों का कुछ भी न कर सके। लम्बे समय तक प्रतीक्षा करने के बाद एक कूर्म ने अपने अंगोपांगों को फैला दिया जिससे उसे शृगालों ने चीर दिया। जो सिकुड़ा रहा उसका बाल भी बांका न हुआ । उसी तरह जो साधक अपनी इन्द्रियों को पूर्ण रूप से वश में रखता है उसको किंचित् भी क्षति नहीं होती । सूत्रकृतांग १३७ में मी बहुत ही संक्षेप में कूर्म के रूपक को साधक के जीवन के साथ सम्बन्धित किया है । श्रीमद् भगवद्गीता १२० में भी 'स्थितप्रज्ञ' के स्वरूप का विश्लेषण करते हुए कछुए का दृष्टान्त देते हुए कहा जैसे - वह अपने अंगों को, बाह्य भय उपस्थित होने पर, समेट लेता है वैसे ही साधकों को विषयों से इन्द्रियों को हटा लेना चाहिए। तथागत बुद्ध ने भी साधक जीवन के लिए कूर्म का रूपक प्रयुक्त किया है । इस तरह कूर्म का रूपक जैन बौद्ध और वैदिक आदि सभी धर्मग्रन्थों में इन्द्रियनिग्रह के लिए दिया गया है। पर यहाँ कथा के माध्यम से देने के कारण अत्यधिक प्रभावशाली बन गया है। पांचवे अध्ययन का सम्बन्ध विश्वविश्रुत द्वारका नगरी से है। श्रमण और वैदिक दोनों ही परम्पराओं के ग्रन्थों में द्वारका की विस्तार से चर्चा है। वह पूर्व पश्चिम में १२ योजन लम्बी और उत्तर दक्षिण में नौ योजन विस्तीर्ण थी । कुबेर द्वारा निर्मित सोने के प्राकार वाली थी, जिस पर पाँच वर्णवाली १३१. संपूर्णानन्द अभिनन्दन ग्रंथ - " काशी की प्राचीन शिक्षापद्धति और पंडित " ॥ १३२. विनयपिटक भा. २, ३५९-६० (ख) मज्झिम. १, १७० (ग) कथावत्थु ९७, ५५९ (घ) सौन्दरनन्दकाव्य ॥ श्लो. १०-११॥ १३३. व्याख्याप्रज्ञप्ति १५, पृ० ३८७ ॥ १३४. .-- (क) स्थानांग १०, (ख) निशीथ ९.१९ (ग) दीघनिकाय-महावीरप रिनिव्वाणसुत्त ॥ १३५. यूआन, चुआंग्स ट्रावेल्स इन इण्डिया, भा० २, पृ० ४६-४८॥ १३६. धजविहेव जातक जातक भाग ३ पृ० ४५४ ॥ १३७. जहा कुम्मे सअंगाई, स देहे समाहरे । एवं पावाई मेहावी, अज्झप्पेण समाहरे । —सूत्रकृतांग ॥ १३८. यदा संहरते चायं कूर्मोऽगानीत्र सर्वशः। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता । — श्रीमद्भगवद्गीता २-५८ ॥ 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001021
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Dharmachandvijay
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1990
Total Pages737
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Story, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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