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________________ दशम अध्याय (प्रथम अध्याय) एतेन 'अवृत्तिव्याधिशोकानिनुवर्तेत शक्तितः । आत्मवत्सततं पश्येदपि कीटपिपीलिकाः॥ आर्द्रसंतानतात्यागः कायवाक्चेतसां दमः । स्वार्थबद्धिः पदार्थष पर्याप्तमिति सदव्रतम् ॥ उपकारप्रधानः स्यादपकारपरेऽप्यरौ।' [ इत्यादिरप्याचारो निरुद्धो बोद्धव्यः, सकलगुणभिनित्वाद्दयायाः (?) अघभी:-अघात् पापात् दृष्टादृष्टापायफलात कर्मणश्चौर्यादेमद्यपानादेश्च बिभ्यस् पापभीरित्यर्थः। सागारधर्म-विकलचारित्रम् । यत्स्वामि 'सकलं विकलं चरणं तत्सकलं सर्वसङ्गविरतानाम् । अनगाराणां विकलं सागाराणां ससङ्गानाम् ॥ [ रत्न. श्रा., ५०] चरेत्-'त्रिज्वाश्चाह' इत्यनेनार्हे सप्तमी । चरितुमर्हतीत्यर्थः । विधौ वा । यथोक्तगुणेन गृहिणा सागारधर्मश्चरितव्य इत्यर्थः । अत्र पूर्वो भद्रक उत्तरो द्रव्यपाक्षिक इति विभागः ॥११॥ अथ सकलसागारधर्मसंग्रहार्थमाह सम्यक्त्वममलममलान्यणु-गुण-शिक्षाव्रतानि मरणान्ते। सल्लेखना च विधिना पूर्णः सागारधर्मोऽयम् ॥१२॥ आश्रय लेनेमें मनका प्रमुदित होना हर्ष है। ये सब अपायका कारण होनेसे त्याज्य हैं। तथा अभ्युदय और मोक्षके हेतु धर्मकी विधिको-युक्ति और आगमसे उसके स्थापनाको सुननेवाला होना चाहिए। कहा है-जो भव्य जीव मेरा कल्याण किसमें है ऐसा विचारता हुआ दुःखसे अत्यन्त डरता है सुखको चाहता है, दयागुणमय सुखकारी धर्मको सुनकर युक्ति और आगमसे उसकी स्थितिका विचार करता है। धर्मकथा सुनता है उसे ग्रहण करता है और आग्रह नहीं रखता, वह प्रशंसनीय है। तथा दयालु होना चाहिए, दुःखीका दुख दूर करनेकी इच्छा रूप दयाका पालक होना चाहिए; क्योंकि धर्मका मूल दया है। कहा है-'जैसे हमें अपने प्राण प्रिय हैं उसी तरह अन्य प्राणियोंको भी हैं यह मानकर मनुष्यको सब प्राणियों पर दया करना चाहिए।' तथा धर्मका सार सुनना चाहिए और सुनकर उसे अवधारण करना चाहिए । जो बात स्वयं अपनेको अच्छी नहीं लगती वह दूसरोंके प्रति भी नहीं करना चाहिए। जो आजीविकाके अभावसे, व्याधि और शोकसे पीड़ित हैं शक्ति के अनुसार उनकी सहायता करना चाहिए और कीट चींटी आदिको भी अपने समान देखना चाहिए ।' अपकारी शत्रुका भी उपकार करना चाहिए । इत्यादि आचार भी दयामें ही जानना। तथा गृहस्थको चोरी मद्यपान आदि पापोंसे डरते रहना चाहिए। ऐसे गृहस्थको श्रावक धर्म अथोत विकल चारित्र पालना चाहिए। कहा है-चारित्र दो प्रकारका ह-सकल चारित्र और विकल चारित्र । समस्त परिग्रहसे रहित अनगार मुनियोंके सकल चारित्र होता है और परिग्रही गृहस्थोंके विकल चारित्र होता है ॥११॥ ___ अब मन्दबुद्धि शिष्य सुख पूर्वक सरलतासे स्मरण रख सकें इसलिए समस्त सागारधर्मका संग्रह एक श्लोकसे कहते हैं शंका आदि दोषोंसे रहित सम्यग्दर्शन, निरतिचार अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाबत और मरण समय विधिपूर्वक सल्लेखना यह पूर्ण सागार धर्म है ॥१२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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