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________________ AAAA ३३६ धर्मामृत ( सागार) एवमतिशयेन परीषहबाधाक्षमं प्रति चतुविधाहारप्रत्याख्यानमुपदिश्येदानी मतथाभूतस्य क्षपकस्य पानी[यमात्रविकलानपूर्वकं त्रिविधप्रत्याख्यानमुपदिशंश्चतुर्विधप्रत्याख्यानावसरनिरूपणार्थमाह-] व्याध्याद्यपेक्षयाम्भो वा समाध्यथं विकल्पयेत् । भशं शक्तिक्षये जह्यात्तदप्यासन्नमृत्युकः ॥६६॥ [ व्याध्याद्यपेक्षया-यदि पैत्तिको व्याधिर्वा ग्रीष्मादिकालो वा मरुस्थलादिदेशो वा पैत्तिको प्रकृति ६ अन्यदप्येवंविधं तुष्णापरोषहोद्रेकासह-] न कारणं वा भवेत् गर्वनुज्ञया पानोयम्पभोक्ष्येऽहमिति प्रत्याख्यानं प्रतिपद्यतेत्यर्थः । तदुक्तम् 'अथवा समाधि... ... ... ... ... ... ... ... ... ...। ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... कालम् ॥' [ ]॥६६॥ अथ तत्कालोचितं क्षपकोपकारिसंघस्यावश्यकरणीयमाह तदाऽखिलो वणिमुखग्राहितक्षमणो गणः। तस्याविघ्नसमाधानसिद्धये तद्यात्तनूत्सृतिम् ॥६॥ वर्णीत्यादि । वणिनो-ब्रह्मचारिणो मुखेन ग्राहितो [ लापितो यथाकथंचित्कृतापराधान् मम यूयं क्षमध्वम-] हं च भवत्कृतांस्तान् क्षम्ये इति क्षमणं यः स तथोक्तः । एतच्च ‘एवं निवेद्य संघाय' इति प्रागक्तमेव विशेष्यं पुनरुक्तम् । तस्येत्या [तस्य प्रत्याख्यातचतुर्विधभक्तस्य क्ष-1 पकस्य च निरुपसर्गताहेतोः कायोत्सर्गः संघेन भवति कर्तव्यः ॥६७।। सल्लेखना सब व्रतोंका चूड़ामणि है क्योंकि इसके धारणसे ही सब व्रत सफल होते हैं। समाधिमरण करानेवाले निर्यापकाचायको निपुण अर्थात् सूक्ष्मदृष्टिसे सम्पन्न कहा है क्योंकि वह क्षपकके रोग, देश, काल, सत्त्व, बल, परीषह सहन करने की क्षमता, संवेग, वैराग्य आदिका सूक्ष्म दृष्टिसे विचार करता है। तब आहार त्याग कराता है। अन्यत्र भी इस विधिका कथन इसी प्रकार किया है-'यह निर्वस्त्र क्षपक जीवन पर्यन्तके लिए समस्त प्रकारके आहारका मन वचन कायसे त्याग करेगा' निर्यापकाचार्य इस प्रकार संघसे निवेदन करें। जो कोका क्षपण करता है वह क्षपक है। उस संयमीको सब प्रकारका भोजन दिखाकर उसका त्याग कराना चाहिए ॥६४-६५|| इस प्रकार जो क्षपक परीषहकी बाधा सहने में अतिसमर्थ होता है उसके लिए चारों प्रकारके आहारके त्यागका उपदेश देकर अब जो क्षपक समर्थ नहीं है उसके लिए जल मात्रके सिवाय तीन प्रकारके आहारके त्यागका उपदेश करते हुए चतुर्विध आहारके त्यागका अवसर बतलाते हैं ___'यदि क्षपकको पित्त सम्बन्धी रोग है, अथवा ग्रीष्म आदि ऋतु है, मरुस्थल आदिका प्रदेश है या पित्त प्रकृति है, अथवा इसी प्रकारका तृष्णा परीषहके उद्रेकको सहन न कर सकनेका कोई कारण हो तो गुरुकी अनुज्ञासे मैं पानीका उपयोग करूँगा' इस प्रकारका प्रत्याख्यान स्वीकार करे, क्योंकि उसके विना उसकी समाधि सम्भव नहीं होगी। जब उसकी शक्ति अत्यन्त क्षीण हो जाये और मरण निकट हो तो क्षपक उस जल का भी त्याग कर दे ॥६६॥ उस समय क्षपकके उपकारी जो कार्य संघको अवश्य करना चाहिए उसे कहते हैं. उस समय किसी ब्रह्मचारीके मुखसे 'जिस किसी तरह हुए अपराधोंको आप क्षमा करें हम आपके अपराध क्षमा करते हैं। इस प्रकार क्षमा ग्रहण करके समस्त संघ 'उस क्षपककी समाधि निर्विघ्न हो उसमें कोई विघ्न न आवे' इस हेतुसे कायोत्सर्ग करे ।।६७।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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