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________________ ३१४ धर्मामृत ( सागार) नानागमनमर्हादिनानाप्रकारप्रवृत्तिपरिणमनं विचारस्तेन रहितम । प्रायं-भक्तप्रत्याख्यानं सार्वकालिकसंन्यासं शुद्धस्वात्मध्यानपरत्वमित्यर्थः ॥११॥ अथ स्वपाकच्युत्या स्वयंपातोन्मुखे देहे सल्लेखना विधेयेत्युपदिशति क्रमेण पक्त्वा फलवत् स्वयमेव पतिष्यति । देहे प्रोत्या महासत्त्वः कुर्यात्सल्लेखनाविधिम् ॥१२॥ क्रमेण-कालक्रमेण । उक्तं च 'तरुदलमिव परिपक्वं स्नेहविहीनं प्रदीपमिव देहम् । स्वयमेव विनाशोन्मुखमवबुध्य करोतु विधिमन्त्यम् ।।' [ सो. उपा. ८९१ श्लो.] पातोन्मुखकायलिङ्गं यथा 'प्रतिदिवसं विजहबलमुज्झद्भक्ति त्यजत्प्रतीकारम् । वपुरेव नृणां निगिरति चरमचरित्रोदयं समयम् ।।' [सो. उपा. ८९३ श्लो.] ॥१२॥ अथ कायनिर्ममत्वभावनाविधिमाह जन्ममृत्युजरातङ्काः कायस्यैव न जातु मे। न च कोऽपि भवत्येष ममेत्यङ्गेऽस्तु निर्ममः ॥१३॥ मे शुद्धचिद्रूपमात्रस्यात्मनः ॥१३॥ | की स्थितिमें विचारमें समय नष्ट न करके भक्तप्रत्याख्यान नामक सार्वकालिक संन्यास ले लेना चाहिए ॥११॥ आगे कहते हैं कि क्रमसे पककर स्वयं शरीरके छूटनेकी स्थितिमें सल्लेखना करना चाहिए जैसे पकनेपर वृक्षसे फल स्वयं गिर जाता है उसी तरह क्रमसे कालानुसार पककर किसी अन्य कारणके बिना ही शरीरके विनाशकी ओर जानेपर धीरवीर श्रावक प्रेमपूर्वक सल्लेखना विधिको अपनावे ॥१२॥ विशेषार्थ--एक मृत्यु होती है और एक अपमृत्यु होती है। शस्त्रघात आदि दुर्घटना वश जो मृत्यु होती है वह अपमृत्यु है। उसे ही कदलीघात मरण कहते हैं। जैसे काटनेसे केला झट कट जाता है उसी तरह आकस्मिक मृत्युमें झट मरण हो जाता है । उस समय सल्लेखना विधिका समय नहीं रहता न उस सम्बन्धमें कुछ विचारका ही समय रहता है । किन्तु जब धीरे-धीरे आयु घटते-घटते बुढ़ापा आकर शरीर छूटनेको होता है, तब विचार पूर्वक सल्लेखना विधि अपनाना चाहिए। शरीर छूटनेवाला है इसके चिह्न अनेक बतलाये हैं। कहा है-प्रतिदिन जिसकी शक्ति क्षीण होती जाती है, भोजन रुचता नहीं, चिकित्सासे कोई लाभ नहीं, ऐसा शरीर ही बतलाता है कि अब अन्तिम चारित्र धारण करनेका समय आ गया है । अतः वृक्षके पके हुए पत्तेकी तरह और तेलरहित दीपककी तरह शरीरको स्वयं ही विनाशकी ओर उन्मुख जानकर सल्लेखनाविधि करना चाहिए ॥१२॥ सबसे प्रथम शरीरसे निर्ममत्व भावनाकी विधि कहते हैं__ जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा और रोग शरीर में ही होते हैं, शुद्ध चिद्रूप मात्र जो यह आत्मा है जिसे 'मैं' शब्दसे कहा जाता है उसके इनमें से कोई भी नहीं होता। तथा यह शरीर शद्ध चिदानन्दमय मेरा न उपकारक है और न अपकारक है। इस प्रकार जान कर समाधिमरणका इच्छुक शरीर में 'यह मेरा है' इस प्रकारके संकल्पसे रहित होवे ॥१३।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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