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धर्मामृत ( सागार) अथ विधिवत्प्राणांस्त्यजत आत्मघातशङ्कामपनुदति
न चात्मघातोऽस्ति वृषक्षतौ वपुरुपेक्षितुः।
कषायावेशतः प्राणान् विषाद्यैहिसतः स हि ॥८॥
वषक्षतौ-प्रतिपन्नव्रतविनाशहेतावुपस्थिते सति । उपेक्षितः-यथाविधि भक्तप्रत्याख्यानादिना - साधुत्वेन त्यजतः । विषाद्यैः-गरलशस्त्रश्वासनिरोध-जलाग्निप्रवेश-लङ्घनादिभिः । उक्तं च
'मरणेऽवश्यंभाविनि कषायसेनातनूकरणमात्रे । रागादिमन्तरेण व्याप्रियमाणस्य नात्मघातोऽस्ति । यो हि कषायाविष्टः कुम्भकजल-धूमकेतु-विष-शस्त्रैः ।
व्यपरोपयति प्राणांस्तस्य स्यात्सत्यमात्मवधः ।।' [ पुरुषार्थ. १७७-१७८ ] ॥८॥ नहीं करना चाहिए। शरीर नष्ट हुआ तो पुनः अवश्य प्राप्त होगा। किन्तु धर्म अर्थात् समाधिमरण तो अत्यन्त दुर्लभ है ।।७॥
विशेषार्थ-शरीर अवश्य नष्ट होता है। ऐसी स्थितिमें यदि धर्मका घात करके शरीर बचाया भी तो कितने समयके लिए? एक दिन तो वह नष्ट होगा ही। वह नष्ट होगा तो नया जन्म धारण करनेपर नया शरीर भी अवश्य ही मिलेगा। बिना शरीरके तो जन्म होता नहीं । किन्तु धर्म गया तो उसकी प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है। यह प्रकरण समाधिमरणका है। अतः यहाँ धर्मसे समाधिमरण ही लेना चाहिए। मरते समय शरीरके मोहसे यदि समाधि धारण न की तो उसका मिलना दुर्लभ है ॥७॥
विधिवत् प्राण त्यागने में आत्मघातकी आशंकाका खण्डन करते हैं
स्वीकार किये हए व्रतोंके विनाशके कारण उपस्थित होनेपर जो विधिके अनुसार भक्तप्रत्याख्यान आदिके द्वारा साधु रीतिसे शरीरको छोड़ता है उसे आत्मघातका दोष नहीं होता ; क्योंकि क्रोधादिके आवेशसे जो विषपान करके या शस्त्रवात द्वारा या जल में डूबकर अथवा आग लगाकर प्राणोंका घात करता है उसे आत्मघातका दोष होता है ।।८॥
विशेषार्थ-धर्मकी रक्षाके लिए शरीरकी उपेक्षा करना आत्मघात नहीं है। मुस्लिम शासनमें न जाने कितने हिन्दू इस्लाम धर्मको स्वीकार न करने के कारण मार डाले गये । क्या इसे आत्मघात कहा जायेगा । जैनधर्ममें समाधिपूर्वक मरण तभी किया जाता है जब मरण टालेसे भी नहीं टलता । शरीर धर्मका साधन रहे तो रक्षा करनेके योग्य है। किन्तु उसकी रक्षाके पीछे धर्म ही जाता हो तो शरीर बचाना अधर्म है। पूज्यपाद स्वामीने सर्वार्थसिद्धि (७।२२) में एक दृष्टान्त दिया है। कहा है-जैसे एक व्यापारी, जो अनेक प्रकारकी विक्रेय वस्तुओंके देने-लेने और संचयमें लगा है, अपने मालघरको नष्ट करना नहीं चाहता। यदि घरमें आग लग जाये तो उसे बचानेकी कोशिश करता है। किन्तु जब देखता है कि घरको बचाना शक्य नहीं है तो घरकी चिन्ता न करके घरमें भरे मालको बचाता है। वैसे ही गृहस्थ भी व्रतशील रूपी धनके संचयमें लगा है। वह नहीं चाहता कि जिस शरीरकेद्वारा यह धर्मका व्यापार चलता है वह नष्ट हो जाये। यदि शरीरमें रोगादि होते हैं तो अपने व्रतशीलकी रक्षा करते हुए शरीरकी चिकित्सा करता है। किन्तु जब देखता है कि शरीरको बचाना शक्य नहीं है तो शरीरको चिन्ता न करके अपने धर्मका नाश न हो ऐसा प्रयत्न करता है। ऐसी स्थितिमें यह आत्मवध कैसे हो सकता है । अमृतचन्द्राचायने भी कहा हैजब मरण अवश्य होनेवाला है तब कषायोंको कृश करने में लगे हुए पुरुषके रागादिके अभाव
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