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________________ ३१० धर्मामृत ( सागार) किंचित्कारणमासाद्य विरक्ताः कामभोगतः। त्यक्त्वा सर्वोपधिं धीराः श्रयन्ति जिनरूपताम् ॥३॥ अथ जिनलिङ्ग स्वीकारमाहात्म्यमाह अनादिमिथ्यादृगपि श्रित्वाऽर्हद्रूपतां पुमान् । साम्यं प्रपन्नः स्वं ध्यायन् मुच्यतेऽन्तर्मुहूर्ततः॥४॥ अपि-न केवलं सादिमिथ्यादृष्टिः सम्यग्दृष्टिः श्रावको वेत्येवमर्थः । उक्तं च 'आराध्य चरणमनुपममनादिमिथ्यादृशोऽपि यत्क्षणतः । दृष्टा विमुक्तिभाजस्ततोऽपि चारित्रमत्रेष्टम् ।।' ॥४॥ [ तो मुनिपद धारण कर लेना ही उत्तम है किन्तु जिसमें ऐसी पात्रता नहीं होती उसके लिए आगेकी विधि कहते हैं ॥२॥ जिनलिंग क्यों धारण करते हैं, यह बतलाते हैं किसी भी कारणवश काम और भोगसे विरक्त हुए धीर वीर श्रावक समस्त अन्तरंगबहिरंग परिग्रहको त्यागकर जिनलिंग स्वीकार कर लेते हैं ॥३॥ विशेषार्थ-स्पर्शन और रसना इन्द्रियों के द्वारा विषयके अनभवको काम कहते हैं और घ्राण, चक्षु और कर्ण इन्द्रियके द्वारा विषयके अनुभवको भोग कहते हैं। इनसे विरक्त होना ही सच्चा वैराग्य है। विरागका अन्तरंग कारण तो तत्त्वज्ञानमें रुचि है। शरीर और आत्माके भेदज्ञानके द्वारा आत्मानुभूति होनेपर विषयोंमें आसक्ति मन्द पड़ जाती है। इसके साथ ही आकाशमें बादलोंके बनने-बिगड़नेसे, सम्पत्तिके विनाशसे या इसी तरह के कारण उपस्थित होनेपर परीषह और उपसर्गको सहन करनेमें समर्थ श्रावक सब परिग्रह छोड़कर मुनिपद धारण करते हैं ॥३॥ जिनलिंगके स्वीकार करनेका माहात्म्य कहते हैं अनादि मिथ्यादृष्टि भी पुरुष जिनरूपताको धारण करके साम्यभावको प्राप्त हो अपने आत्माका ध्यान करता हुआ अन्तर्मुहूर्तमें ही मुक्त हो जाता है अर्थात् द्रव्यकर्म और भावकमसे स्वयं ही भिन्न हो जाता है ॥४॥ विशेषार्थ-द्रव्यकर्म और भावकर्मसे अलग हो जानेका नाम ही मुक्ति है । अनादि मिथ्यादृष्टि भी उसी भव में सम्यक्त्वको प्राप्त करके जिनलिंग धारण करके मुक्त हो सकता है । सादिमिथ्यादृष्टि, अविरत सम्यग्दृष्टि और श्रावककी तो बात ही क्या है। किन्तु ऐसा करनेवाला द्रव्यसे पुरुष ही होना चाहिए। उसे ही मुक्ति प्राप्त हो सकती है। केवल जिनरूपता धारण करनेसे भी मुक्ति नहीं हो सकती। किन्तु माध्यस्थ भावपूर्वक आत्मध्यान करनेसे मुक्ति प्राप्त हो सकती है। अतः मुक्तिके लिए चारित्रको आवश्यक माना है। जिनरूपताका धारण और साम्यभावकी प्राप्तिपूर्वक आत्मध्यान ये सब चारित्र ही तो हैं। कहा भी है-'यतः अनादिमिथ्यादृष्टि भी अनुपम चारित्रकी आराधना करके क्षणमात्रमें मुक्तिको प्राप्त हुए देखे गये हैं इसलिए भी यहाँ चारित्र इष्ट है ।' किन्तु इसका मतलब मिथ्यात्वपूर्वक चारित्र धारण करना नहीं है । यद्यपि पहले मिथ्यात्व गुणस्थानसे मनुष्यको एकदम सातवाँ गुणस्थान हो सकता है। अर्थात् सम्यक्त्व और सकल चारित्रकी प्राप्ति एक साथ हो सकती है ॥४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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