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________________ ३०४ धर्मामृत ( सागार) सर्वे-एकादशोऽपि । उक्तं च 'इच्छाकारं समाचारं संयमासंयमस्थितः । विशुद्धिवृत्तिभिः साधं विदधाति प्रियंवदः ॥' [ ]॥४९॥ इदानीं दशभिः पद्यैः शेषं संगृह्णन्नाह श्रावको वीरचर्याहः प्रतिमातापनादिषु । स्यानाधिकारी सिद्धान्तरहस्याध्ययनेऽपि च ॥५०॥ वीरचा -स्वयं भ्रामर्या भोजनम् । रहस्य-प्रायश्चित्तशास्त्रम् । उक्तं च 'दिणपडिम-वीरचरिया-तियालजोगेसु णत्थि अहियारो। सिद्धंतरहंसाणवि अज्झयणं देसविरदाणं ॥' [ वसु. श्रा. ३१२ ] ॥५०॥ मात्र वस्त्र रखता है, केशलोंच करता है, कमण्डलु और पीछी रखता है। वह चैत्यालयमें, संघमें या वनमें मुनियोंके समीप रहे या शून्य मठादिमें रहे। निर्दोष शुद्ध स्थानमें रहना चाहिए। मध्याह्न काल में भोजन के लिए नगर में घूमे । ईर्यासमिति पूर्वक घरोंकी संख्याका नियम करके भ्रमण करे। दोनों हाथोंको पात्र बनाकर भोजन करे । मुक्तिके साधन धर्मका उपदेश दे । बारह प्रकारका तप करे और प्रायश्चित्त आदि करे। क्षुल्लकका आचार कोमल होता है, वह चोटी जनेऊ रखे, लंगोटीके साथ एक वस्त्र, वस्त्रकी पीछी और कमण्डलू रखे, काँसे या लोहेका भिक्षापात्र स्वीकार करे । एषणा दोषसे रहित एक बार भिक्षा भोजन करे। दाढ़ी मँछ और सिरके बालोंको छुरे से मुंडवावे । अतीचार लगने पर प्रायश्चित्त करे । निर्दिष्ट कालमें भोजनके लिए भ्रमण करे । भ्रमरकी तरह पाँच घरोंसे पात्रमें भिक्षा लेकर उनमें से किसी एक घरमें प्रासुक जल देखकर कुछ क्षण अतिथि दानके लिए प्रतीक्षा करे। दैववश पात्र प्राप्त हो तो गृहस्थकी तरह उसे दान दे। जो शेष बचे उसे स्वयं खावे, अन्यथा उपवास करे। यदि साधर्मियोंके द्वारा गन्ध आदि द्रव्य प्राप्त हो तो प्रसन्नता पूर्वक जिनबिम्ब, साधु आदिकी पूजा करे । इनमें कुछ साधक होते हैं, कुछ गूढ़ होते हैं, कुछ वानप्रस्थ होते हैं । सब क्षुल्लकके समान वेश धारण करते हैं उसीके समान क्रिया करते हैं जो न तो अति मृदु होती है और न अति कठोर होती है। गुरु और आत्माकी साक्षिपूर्वक क्षुल्लककी तरह पाँच मध्यवर्ति व्रत (?) होते हैं। इन साधक आदिमें कुछ विशेष होता है। कुछ तो विना व्रत ग्रहण किये व्रतोंका अभ्यास करते हैं। कुछ व्रतोंका अभ्यास करके साहस पूर्वक व्रत ग्रहण करते हैं। कुछ व्रत ग्रहण न करके घर लौट जाते हैं।' इस लाटीसंहिताके कथनमें पूर्व श्रावकाचारोंसे विशेषता है। क्षुल्लकका अपनी भिक्षामें-से अतिथिको दान देना और श्रावकोंके द्वारा अष्ट द्रव्य प्राप्त होनेपर जिनपूजा द्रव्यसे करना, ये दो बातें विशेष रूपसे उल्लेखनीय हैं। क्षुल्लकके बाद जो कुछ साधक आदि कहे हैं वे तो अभ्यासी प्रतीत होते हैं। श्रावक होनेसे उनका कथन किया प्रतीत होता है ॥४९॥ आगे दस श्लोकोंसे अवशिष्ट बातोंका संग्रह करते हैं श्रावक वीरचर्या, दिनप्रतिमा, आतापन आदि त्रिकालयोग, सूत्ररूप परमागम और प्रायश्चित्तशास्त्रके अध्ययन अधिकारी नहीं होता ॥५०॥ विशेषार्थ-मुनिकी तरह स्वयं भ्रामरी वृत्तिसे भोजन करनेको वीरचर्या कहते हैं। दिनमें प्रतिमायोग धारण करनेको दिन प्रतिमा कहते हैं । मुनिकी तरह स्वयं भ्रामरी वृत्तिसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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