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________________ पञ्चदश अध्याय ( षष्ठ अध्याय ) २७७ ३ अथ योगपरमकाष्ठामभिकांक्षति शून्यध्यानैकतानस्य स्थाणुबुद्धयाऽनडुन्मृगैः । उदधष्यमाणस्य कदा यास्यन्ति दिवसा मम ॥४३॥ शून्यध्यानैकतानस्य-निर्विकल्पसमाधिपरिणतस्य । अनड्वाहः-उत्कृष्टपशवः । एतैः पुराद्बहिः कायोत्सर्ग लक्षयति-मृगैरिवारण्ये उघृष्यमाणस्य स्कन्धशृङ्गकण्डूयनगोचरीक्रियमाणस्य । अत्रान्तरश्लोकाः 'बहिर्वाग्ज्योतिषात्मानं प्रकाश्यान्तः स्वयं विदन । शुद्धं द्राग्वान्तरागः स्यां मुक्ता जीवन्नपि क्षणम् ।।१।। व्यावर्त्य विषयेभ्योऽन्तेर्नीत्वा युक्तेन चेतसा । पश्यतस्तल्लयो मेऽस्तु मय्येवानन्दनिर्भरे ॥२॥ यद्विक्षिप्तं मनःकष्टं तन्मय्यपि गतागतम् । स्यान्मुदे किं पुनः श्लिष्टं सुलीनं त्वहमेव तत् ।।३।। अहमेवाहमित्यात्मज्ञानादन्यत्र चेतनाम् । इदमस्मि करोमीदं इदं भुञ्ज इति क्षिपे ॥४॥ अहमेवाहमित्यन्त ल्पसंपृक्तकल्पनाम् । त्यक्त्वा वाग्गोचरं ज्योतिः स्वयं पश्यामि शाश्वतम् ।।५।। स्वात्माभिमुखसंवित्तिलक्षणश्रुतचक्षुषा । पश्यन् पश्यामि शुद्धं मां केवलज्ञानचक्षुषा ॥६॥ दगादियगपद्वत्तिप्रवत्तैकाग्यसंगतः। निष्पीतानन्तपर्यायं वेद मां शुद्धचिन्मयम् ।।७।। सर्वदा सर्वथा सर्व यत्र भावि निखातवत्। तज्ज्ञानात्मानमद्वा मां विदन् शीतीभवाम्यहम् ॥८॥' [ ] ॥४३॥ अथ महानिशायां पुराद् बहिः प्रोषधोपवासवतान् कायोत्सर्गस्थितानुपसर्गजयेन योगादचलितान् प्राच्यश्रावकान् प्रशंसतिध्येय और ध्यान इन तीनोंका एकत्व होनेपर जो आनन्द होता है उसे समरस कहते हैं। उसका जो निरन्तर अनुभवन करते हैं वे समरसस्वादी होते हैं। उन्हींके समान होनेकी कामना महाश्रावक करता है ॥४२॥ अब योगकी चरम सीमाको प्राप्त करनेकी भावना करता है निर्विकल्प समाधिमें लीन और वनके पशु तथा मृग आदिके द्वारा मुझे ठूठ मानकर अपने शरीरकी खुजलाहट शान्त करनेके लिए उनके घषणका पात्र बनते हए मेरे दिन कब बीतेगे ॥४३॥ विशेषार्थ-जब मैं नगरके बाहर कायोत्सर्गसे खड़ा रहूँगा तब स्वच्छन्द विचरण करनेवाले साँड़ वगैरह अपने कन्धे आदिकी खुजलाहटसे व्याकुल होकर खाज मिटानेके लिए मुझे स्थाणु मानकर अपनी खाल खुजायेंगे। और मैं नगर और वनमें समभाव रखकर शुद्ध चिदानन्दमय अपनी आत्मामें ही वास करूँगा। ऐसे मेरे दिन कब बीतेंगे। ऐसा मनोरथ इस महाश्रावकका है ।।४।। - महारात्रिमें नगरसे बाहर प्रोषधोपवासव्रतपूर्वक कायोत्सर्गसे स्थित और उपसर्ग होनेपर भी योगसे विचलित न होनेवाले प्राचीन श्रावकोंकी प्रशंसा करते हैं २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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