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चतुर्दश अध्याय ( पंचम अध्याय )
२४७
पात्रापात्रसमावेक्षमसत्कारमसंस्तुतम् । दासभृत्यकृतोद्योगं दानं तामसमूचिरे ।। उत्तमं सात्विकं दानं मध्यमं राजसं भवेत् ।
दानानामेव सर्वेषां जघन्यं तामसं पुनः ।।' सो. उपा.८३०,८२८-८२९,८३१] ॥४७॥ अथ दानफलं तद्विशेषं च व्याचष्टे --
रत्नत्रयोच्छ्यो भोक्तुर्दातुः पुण्योच्चयः फलम् ।
मुक्त्यन्तचित्राभ्युदयप्रदत्वं तद्विशिष्टता ।।४।। भोक्तुः-आहाराद्युपयोक्तुः । फलं--प्रयोजनं प्रकृतत्वादानस्य । उक्तं च
'आत्मनः श्रेयसेऽन्येषां रत्नत्रयसमृद्धये ।
स्वपरानुग्रहायार्थ यत्स्यात्तद्दानमिष्यते ।।' [ सो. उपा. ७६६ ] ज्ञानी है । अर्थात् द्रव्य आदिको जानना ज्ञान है। जो दान देने पर भी मन, वचन, कायसे सांसारिक फलकी याचना नहीं करता वह दाता अलोलुप है। अर्थात् सांसारिक फल की अपेक्षा न करना अलोलुपता है। जो साधारण स्थितिका होते हुए भी ऐसा दान देता ह जिसे देखकर धनवानोंको भी आश्चर्य होता है वह दाता सात्त्विक है। अर्थात् सत्त्व एक ऐसा मनोगुण है जो दाताको उदार बनाता है। दुर्निवार कलुषताके कारण उत्पन्न होनेपर भी जो किसीपर कुपित नहीं होता वह दाता क्षमाशील होता है। इस तरह दाताके सात गुण कहे हैं । पुरुषार्थसिद्धथुपायमें सात गुण इस प्रकार कहे हैं-सांसारिक फलकी अपेक्षा न करना अर्थात् अलोलुपता, क्षमा, निष्कपटता, अर्थात् बाहर में भक्ति करना और अन्दरमें खराब भाव नहीं रखना, अनसूया---अर्थात् अन्य दाताओंसे द्वेषभाव न होना, अविषादखेद न होना, मुदित्व अर्थात् दानसे हर्ष होना और निरहंकारता ! सोमदेवने दानके तीन भेद किये हैं-राजस, तामस और सात्त्विक । जो दान अपनी प्रसिद्धिकी भावनासे भी कभीकभी ही दिया जाता है। और वह भी तब दिया जाता है जब किसीके द्वारा दिये दानका फल देख लिया जाता है वह दान राजस है । पात्र और अपात्रको समान मानकर या पात्रको भी अपात्रके समान मानकर बिना किसी आदर सन्मान और स्तुतिके, नौकर चाकरोंके उद्योगसे जो दान दिया जाता है वह दान तामस है। जो दान स्वयं पात्रको देखकर श्रद्धा पूर्वक दिया जाता है वह दान सात्त्विक है। इन तीनों दानों में सात्त्विकदान उत्तम है, राजसदान मध्यम है और तामसदान निकृष्ट है ॥४७॥
दानका फल और उसकी विशेषता कहते हैं
आहार आदि ग्रहण करनेवाले पात्रके सम्यग्दर्शन आदि गुगों में वृद्धि और आहार आदि दान देनेवालेके पुण्यका संचय दानका फल है। और अन्त में मुक्ति तथा उससे पहले नाना प्रकार के इन्द्र, चक्रवर्ती, बलदेव, तीर्थंकर आदि पदरूप अभ्युदयको देना उस दानके फलकी विशेषता है ।।४८॥
विशेषार्थ-दानका फल दान देनेवाले और दान लेनेवाले दोनोंको मिलता है। जो दान ग्रहण करता है वह अपने धर्म साधनमें लगकर अपने आत्मिक गणोंकी उन्नति करता
१. ऐहिकफलानपेक्षा क्षान्तिनिष्कपटतानसूयत्वम् ।
अविषादित्वमुदित्वे निरहङ्गारित्वमिति हि दात गुणाः ।।-पुरु. १६९ श्लो. ।
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