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चतुर्दश अध्याय ( पंचम अध्याय )
अथ सामायिकस्थेन परीषहोपसर्गोपनिपाते सति तज्जयार्थं किं ध्यातव्यमित्याहमोक्ष आत्मा सुखं नित्यः शुभः शरणमन्यथा ।
भवोऽस्मिन्वसतो मेऽन्यत्कि स्यादित्यापदि स्मरेत् ||३०||
आत्मा मोक्षः अनन्तज्ञानादिरूपत्वात् । सुखं अनाकुलचिद्रूपत्वात् । नित्यः अनन्तकालभाविप्रध्वंसाभावरूपत्वात् । शुभ: शुभकारणप्रभवत्वात् शुभकार्यत्वाच्च । शरणं समस्तविपदगम्यतया अपायपरिरक्षणोपायत्वात् । भवः स्वोपात्तकर्मोदयवशाच्चतुर्गतिपर्यटनम् । अन्यत् - सुखशुभादिः स्यात् अभूदस्ति भविष्यति ६ च, किन्त्वापद एव स्युः । तदुक्तम् -
'विपद्भवपदावर्ते पदिके वातिवाह्यते । यावत्तावद्भवन्त्यन्याः प्रचुरा विपदः पराः ॥' [
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आपदि, एतेन प्रतिपन्नसामायिकेन परीषहोपसर्गाः सोढव्या इत्याक्षिप्यते । उक्तं च-'शीतोष्णदंशमशक परीषहमुपसर्गमपि च मौनधराः । सामयिकं प्रतिपन्ना अधिकुर्वीरन्नचलयोगाः ॥'
अपि च-
'अशरणमशुभमनित्यं दुःखमनात्मनामवसामि भवम् ।
मोक्षस्तद्विपरीतात्मेति ध्यायन्तु सामयिके ॥ ' [ र श्रा. १०३-१०४ ] ॥ ३० ॥
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करने से कोई दोष नहीं है बल्कि गुण ही है । आचार्य अमृतचन्द्रने दिन और रात्रिके अन्तमें तथा समन्तभद्राचार्यने प्रतिदिन सामायिक करनेपर जोर दिया है ||२९||
सामायिक करते समय यदि परीषह और उपसर्ग आ जाये तो उन्हें जीतने के लिए क्या ध्यान करना चाहिए, यह बताते हैं
मोक्ष आत्मरूप है, सुखरूप है, नित्य है, शुभ है, शरण है, और संसार इससे विपरीत है । इस संसार में निवास करते हुए मेरेको अन्य क्या होगा, इस प्रकार परीषद और उपसर्गके समय विचार करे ||३०||
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विशेषार्थ - परीषह और उपसर्ग आनेपर सामायिक करनेवालेको संसार और मोक्ष के स्वरूपका चिन्तन करना चाहिए कि मोक्ष अनन्तज्ञानादि रूप होनेसे आत्मरूप है अर्थात् जो आत्मका स्वरूप है वही मोक्षका स्वरूप है क्योंकि शुद्ध आत्मस्वरूपकी प्राप्तिका नाम मोक्ष है । तथा मोक्ष आकुलता रहित चित्स्वरूप होनेसे सुखरूप है । तथा संसारदशाका प्रध्वंसाभावरूप होनेसे मोक्ष अनन्तकाल रहनेवाला है । मोक्ष होनेसे पुनः संसार दशा नहीं होती । तथा मोक्ष शुभकारण सम्यग्दर्शनादिसे उत्पन्न होता है और शुभकार्यरूप है अतः शुभ है । तथा मोक्ष समस्त विपत्तियोंसे दूर है और समस्त अनिष्टोंसे रक्षा करनेका उपाय है अर्थात् मोक्ष प्राप्त होनेपर किसी भी प्रकारका अनिष्ट सम्भव नहीं है अतः शरण है । किन्तु संसार मोक्षसे बिलकुल विपरीत है क्योंकि आत्माके द्वारा गृहीत कर्मोंके उदयके वशसे चार गतियोंमें भ्रमणका नाम संसार है अतः संसार न तो आत्मरूप है, न सुखरूप है, किन्तु दुःखरूप है और सदा परिवर्तनशील होनेसे अनित्य है और इसीलिए अशरण है । अतः संसार में रहते हुए तो उपसर्ग और परीषह ही सम्भव है। ऐसा विचार करने से विपत्ति के समय मन सहिष्णु बन जाता है. इससे यह बतलाया है कि सामायिक करनेवालेको परीषह, उपसर्ग आदि सहन करने चाहिए । आचार्य समन्तभद्रने भी कहा है कि सामायिक करनेवाले मौनपूर्वक शीत, उष्ण तथा डांस-मच्छरोंकी परीषह और उपसर्गको तिरस्कृत कर देते हैं। पं. आशाधरजीने तो
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