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________________ ३ धर्मामृत ( सागार) अस्त्रादि । आदिशब्देन हल शकट कुशि कुद्दालादि । अङ्ग - उपकरणम् । स्पर्शनं – दानम् । अग्न्यादि-वह्निघरट्टमुसलोदूखलादि । दाक्षिण्याविषये - परस्परव्यवहारविषयादन्यत्र । उक्तं च'असि - धेनु - विष हुताशन- लाङ्गल - करवाल - कार्मुकादीनाम् । वितरणमुपकरणानां हिंसायाः परिहरेद् यत्नात् ॥ [ पुरुषार्थ. १४४ ] ॥८॥ २१० अथ दुःश्रुत्यपध्यानयोः स्वरूपं परिहारं चाहचित्तकालुष्यकृत्कामहिंसाद्यर्थं श्रुतश्रुतिम् । न दुःश्रुतिमपध्यानं नार्तरौद्रात्म चान्वियात् ॥९॥ कामेत्यादि । काम हिंसा आदिर्येषामारम्भादीनां ते अर्था येषां तानि कामाद्यर्थानि श्रुतानि । तत्र ९ कामशास्त्र - वात्स्यायनादि । हिंसाशास्त्रं — ठकादिमतम् । आरम्भपरिग्रहशास्त्रं वार्तानीतिः । साहसशास्त्रं वीरकथा | मिध्यात्वशास्त्रं ब्रह्माद्वैतादिमतम् । मदशास्त्रं 'वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः' इत्यादिग्रन्थः । रागशास्त्रं वशीकरणादितन्त्रम् । तेषां श्रुति: आकर्णनम् । उपलक्षणादर्जनाद्यपि । अपध्यानं — अपकृष्टं ध्यानमेकाग्र१२ चिन्तनिरोधः । आतं ऋते दुःखे भवम् । यदि वा अतिः पीडा याचना च तत्र भवम् । रौद्रं -- रोधयत्यपरानिति रुद्रो दुःखहेतुस्तेन कृतं तस्य वा कर्म । नान्वीयात् - नानुवर्तयेत् । दुःश्रुति - कामादिशास्त्रश्रवणलक्षणाम् । अपध्यानं च नरेन्द्रत्वखचरत्वाप्सरो विद्याधरीपरिभोगादिविषयभातं वैरिघाताग्निघातादिविषयं च १५ रौद्रम् । प्रसङ्गवशादायातमपि तत्क्षणान्निवर्तयेदित्यर्थः । तदुक्तम् - 'रागादिवर्धनानां दुष्टकथानाम बोधबहुलानाम् । न कदाचन कुर्वीत श्रवणार्जन शिक्षणादीनि ॥' [ पुरुषार्थ. १४५ ] विशेषार्थ - सभी श्रावकाचारोंमें हिंसाके साधन फरसा, तलवार, फावड़ा, आग, शस्त्र, सींग, साँकल, विष, कोड़ा, दण्डा, हल, धनुष आदि दूसरोंको देना हिंसादान कहा है । और हिंसादान न करनेका निषेध किया है । किन्तु गृहस्थी के लिए कभी-कभी अणुव्रती गृहस्थको भी आग, मूसल, ओखली आदि दूसरे गृहस्थोंसे लेने की आवश्यकता होती है । यदि वह स्वयं दूसरोंको नहीं देगा तो दूसरे कैसे उसे देंगे । गृहस्थ पं. आशाधरजीको इस कठिनाईका अनुभव होगा । इसलिए उन्होंने इतना विशेष कथन करना उचित समझा कि जिनसे हमारा पारस्परिक देने-लेनेका व्यवहार चलता है उनको तो रसोई बनानेके लिए अग्नि, मूसल आदि देना चाहिए किन्तु जिनसे हमारा ऐसा व्यवहार नहीं है उन्हें रसोई बनाने के लिए भी आग वगैरह नहीं देना चाहिए । ऐसी घटनाएँ ग्रामों में सुनी गयीं कि परिचित आदमीने आग माँगी और उसी गाँव में उससे आग लगाकर लापता हो गया । अमृतचन्द्रजीने तो तलवार, धनुष, विष, आग, हल आदि हिंसाके साधनोंको देनेका ही निषेध किया है ||८|| दुःश्रुति और अपध्यानका स्वरूप तथा उनके त्यागको कहते हैं जिन शास्त्रों में काम, हिंसा आदिका कथन है उनके सुननेसे चित्त राग-द्वेष के आवेशसे कलुषित होता है, अतः उनके सुननेको दुःश्रुति कहते हैं यह नहीं करना चाहिए। तथा आर्त और रौद्ररूप खोटे ध्यान भी नहीं करना चाहिए ||९|| विशेषार्थ - कुछ शास्त्र ऐसे होते हैं जिनमें मुख्य रूप से काम भोग सम्बन्धी या हिंसा, चोरी आदिका ही कथन रहता है । जैसे, वात्स्यायनका काम सूत्र है, कोकशास्त्र है, जासूसी उपन्यास हैं, वशीकरण आदि तन्त्र आदिके ग्रन्थ हैं, आरम्भ परिग्रह विषयक शास्त्र हैं । इनके सुनने से मन खराब होता है, पढ़कर कामविकार उत्पन्न होता है, बुरी आदतें पड़ जाती हैं अतः ऐसी पुस्तकों को या शास्त्रोंको नहीं पढ़ना चाहिए । इसी तरह अपध्यान नहीं करना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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