________________
२०८
धर्मामृत ( सागार )
भूमिगृह कूपादेः, तिर्यक् पूर्वादिदिक्षु येऽमी भागा नियमित प्रदेशास्तेषां व्यतिक्रमा लङ्घनानि । एते च त्रयोऽनाभोगातिक्रमादिभिरेवातिचारा भवन्त्यन्यथा प्रवृत्तौ तु भङ्गा एव । क्षेत्रवृद्धिः - क्षेत्रस्य पूर्वादिदेशस्य ३ दिग्व्रतविषयस्य ह्रस्वस्य सतो वृद्धिः पश्चिमादिक्षेत्रान्तरपरिमाण प्रक्षेपेण दीर्घीकरणम् । तथाहि — केनापि पूर्वापरदिशोः प्रत्येकं योजनशतं परिमाणीकृत्यैकत्र क्षेत्रं गमनकाले वर्धयतो व्रतसापेक्षत्वातिचारः । यदि च अप्रणिधानात्क्षेत्रपरिमाणमतिक्रान्तं भवति तदा निवर्तितव्यं ज्ञाते वा न गन्तव्यमन्योऽपि न विसर्जनीयः । ६ अधानाज्ञाया ( अथाज्ञतया ) कोऽपि गतः स्यात्तदा यत्तेन लब्धं स्वयं वा विस्मृतितो गतेन लब्धं तत्त्याज्यमिति
पञ्चमः ॥ ५ ॥
९
१२
अथानर्थदण्डव्रतं लक्षयति
पीडी पापोपदेशाद्यैर्देहाद्यर्थाद्विनाऽङ्गिनाम् । अनर्थदण्डस्तस्यागोऽनर्थदण्डव्रतं मतम् ॥६॥
अर्थः प्रयोजनम् । उक्तं च
Jain Education International
'पापो देश हिसादानापध्यानदुश्रुतीः पञ्च ।
प्राहुः प्रमादचर्यामनर्थदण्डानदण्डधराः ॥' [र. श्री. ७५ ] ॥६॥
पचास योजनसे आगे जाता है तो अतिचार है । और यदि सौ योजनसे भी आगे जाता है। तो व्रतका भंग है क्योंकि पचाससे आगे जाने में तो व्रतकी सापेक्षता है । किन्तु सौसे भी आगे जानेपर व्रतकी सापेक्षता नहीं है । इस तरह यह प्रथम अतिचार है ॥१॥ ऊपर अर्थात् पहाड़ और वृक्षके ऊपर, नीचे अर्थात् गाँवके कुएँ वगैरह में और तिर्यक् अर्थात् पूर्वादि दिशाओं में ली हुई मर्यादाका उल्लंघन ऊर्ध्वातिक्रम, अधोअतिक्रम और तिर्यगतिक्रम नामक अतिचार है । ये तीनों अज्ञान या प्रमादसे होनेपर ही अतिचार होते हैं । जान-बूझकर उल्लंघन करनेपर तो व्रतका भंग ही होता है । क्षेत्र अर्थात् पूर्व आदि देशकी मर्यादा में कमी करके पश्चिम आदि देशकी मर्यादाको बढ़ा लेना क्षेत्रवृद्धि नामक अतिचार है । जैसे, किसीने पूर्व और पश्चिम दिशा में से प्रत्येकमें सौ योजन जानेका परिमाण किया । दोनों परिमाणों को जोड़कर गमन करते समय पूरब में १५० या पश्चिम में १५० योजन चले जाना कि हम दूसरी दिशामें कम जायेंगे यह व्रत सापेक्ष होनेसे अतिचार है । यदि असावधानीवश क्षेत्र के परिमाणका अतिक्रमण हुआ है तो वहाँसे लौट आना चाहिए और यह बात ज्ञात होनेपर जाना नहीं चाहिए । यदि कोई अज्ञानवश चला गया है तो वहाँसे जो लाभ हुआ हो उसे त्याग देना चाहिए । इस प्रकार यह पाँचवाँ अतिचार है ||५||
अर्थदण्डव्रतका लक्षण कहते हैं
-
अपने तथा अपने सम्बन्धियोंके किसी मन-वचन-काय सम्बन्धी प्रयोजनके बिना पापोपदेश, हिंसादान, दुश्रुति, अपध्यान और प्रमादचर्याके द्वारा प्राणियोंको पीड़ा देना अनर्थदण्ड है । और उसका त्याग अनर्थदण्ड व्रत माना है || ६ ||
विशेषार्थ - दिव्रतकी मर्यादाके भीतर भी पापके कार्य निष्प्रयोजन न करनेका नाम अनर्थदण्ड व्रत हैं । दण्ड कहते हैं मन-वचन-कायकी प्रवृत्तिको । और अनर्थका अर्थ होता है बिना प्रयोजन | विना प्रयोजन मन-वचन-कायकी प्रवृत्तिके द्वारा त्रस स्थावर जीवोंको १. 'अभ्यन्तरं दिगवधेरपार्थिकेभ्यः सपापयोगेभ्यः ।
विरमणमनर्थदण्डव्रतं च विदुव्रतधराग्रगण्यः ॥' - रत्न श्रा. ७४ श्लो. 1
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org