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________________ त्रयोदश अध्याय (चतुर्थ अध्याय) किंचित्कालं परिगृहीतां वेश्यां गच्छतो भङ्गः कथंचित्परदारत्वात्तस्याः, लोके तु परदारत्वारूढेन भङ्ग [इति भङ्गाभङ्गरूपोऽतिचारः । अन्ये त्वपरिगृ-] हीतकुलाङ्गनागमनमप्यन्यदारवजिनोऽतिचारमाहुस्तत्कल्पनया परस्य भर्तुरभावेनापरदारत्वादभङ्गो लोके च परदारतया रूढेर्भङ्ग [इति भङ्गाभङ्गरूपत्वा- ३ त्तस्य । एतेनेत्वरिका] परिगृहीतापरिगृहीतागमनलक्षणमतिचारद्वयं तत्त्वार्थशास्त्रोद्दिष्टमपि संगृहीतं भवति । परविवाहकरणादयस्तु चत्वारो द्वयोरपि [ स्फुरन्तीति प्रथमोऽतिचारः ॥१॥ परविवाहकरणं-] स्वापत्यव्यतिरिक्तानां कन्याफललिप्सया स्नेहसंबन्धादिना वा परिणयनविधानम् । एतच्च स्वदारसन्तोषवता ६ स्वकलत्रात् परदारवर्जन च स्वकलत्र वेश्याभ्यामन्यत्र मनोवाक्कायम-थनं न कायं न च करणीयमिति व्रतं यदा गृहीतं भवति तदाऽन्यविवाहकरणं मैथुनकारणमित्यर्थतः प्रतिषिद्धमेव च भवति । तद्वती तु मन्यते [ विवाह एवायं मया क्रियते न मैथुनं ] कार्यत इति व्रतसापेक्षत्वादतिचारः । कन्याफललिप्सा च ९ सम्यग्दृष्टेरव्युत्पन्नावस्थायां संभवति । मिथ्यादृष्टेस्तु भद्रकावस्थायामनुग्र[ हार्थं व्रतादाने सा संभवति । ननु परविवाहन-] वत स्वापत्यविवाहनेऽपि समान एव दोष इति चेत सत्यं । कि तहि ? यदि स्वकन्याया विवाहो न कार्यते तदा स्वच्छन्दचारिणी स्यात् । ततश्च कुल[समयलोकविरोधः स्यात् । विहितविवाहा तु] १२ पतिनियन्त्रितत्वेन न तथा स्यादेष न्यायः पुत्रेऽपि कल्पनीयः । यदि पुनः कुटुम्बचिन्ताकारकः कोऽपि स्ववद् भ्रात्रादिर्भवेत्तदा स्वापत्यविवाहनेऽपि नियम एव श्रेयान् । यदा तु स्वदारसंतुष्टो विशिष्टसंतोषाभावादन्यकलत्रं परिणयति तदाऽप्यस्यायमतिचारः स्यात्परस्य कलत्रान्तरस्य विवाहकरणमात्मना वि[ वाहनमिति १५ वेश्या भी इत्वरी है। इस इत्वरी शब्दसे कुत्साके अर्थ में 'क' प्रत्यय करने पर इत्वरिका शब्द बनता है। उसमें गमन करना अर्थात् उसका सेवन करना इत्वरिकागमन नामक अतिचार है। पं. आशाधरजीके अनुसार इसमें यह भावना है कि उसका शुल्क देकर कुछ कालके लिए उसे स्वीकार करनेसे अपनी स्त्री मानकर वेश्या या दुराचारिणी स्त्रीको सेवन करनेवालेकी उसमें 'यह मेरी स्त्री है। ऐसी कल्पना होनेसे व्रत सापेक्ष होनेसे तथा थोड़े ही समयके लिए उसे स्वीकार करनेसे व्रतका भंग नहीं हुआ। और वास्तव में स्वस्त्री न होनेसे व्रतका भंग हुआ इस प्रकार भंग और अभंग रूप होनेसे अतिचार है। क्योंकि इत्वरिका तो वेश्या है और अन्य स्त्री अनाथ होनेसे परनारी है। तथा शुल्क देकर कुछ कालके लिए स्वीकार की गयी वेश्याको जो भोगता है उसका व्रत भंग होता है क्योंकि वह कथंचित् परस्त्री है। किन्तु लोकमें वेश्या परस्त्री नहीं मानी जाती इसलिए व्रत भंग नहीं हुआ। अतः एकदेशका भंग और एकदेशका अभंग होनेसे अतिचार है। अन्य ग्रन्थकार तो अपरिगृहीत कुलांगनाके सेवनको भी परस्त्रीत्यागीके लिए अतिचार कहते हैं। उनकी कल्पनाके अनुसार उसका कोई स्वामी न होनेसे वह परस्त्री नहीं है इसलिए व्रतका भंग नहीं होता। किन्तु लोकमें उसे परस्त्री माना जाता है इसलिए व्रतका भंग होता है। इससे तत्त्वार्थ सूत्र में कहे गये अपरिगृहीत इत्वरिका और परिगृहीत इत्वरिका गमन नामक दोनों अतिचारोंका ग्रहण होता है। पं. आशाधरजीने उक्त भावना श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्रके योगशास्त्रकी स्वोपज्ञ टीकाका अनुसरण करते हुए की है। किन्तु हेमचन्द्रने यह स्पष्ट कर दिया है कि ये दोनों अतिचार स्वदारसन्तोषीके ही होते हैं परस्त्री त्यागीके नहीं क्योंकि दोनों ही परस्त्री हैं। (योग. ३९४) दूसरा अतिचार है परविवाहकरण अर्थात् अपनी सन्तानसे अतिरिक्त दूसरोंकी सन्तानका कन्याफलकी इच्छासे अथवा पारस्परिक स्नेहके होनेसे विवाह कराना। जब स्वदारसन्तोषव्रती 'अपनी स्त्रीके सिवाय अन्यमें मन वचन कायसे मैथुन न करूँगा, न कराऊँगा' ऐसा व्रत लेता है तथा परस्त्रीका त्यागी 'अपनी स्त्री और वेश्याके अतिरिक्त अन्यमें मन वचन कायसे सा.-२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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