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________________ त्रयोदश अध्याय ( चतुर्थं अध्याय ) १६७ किंच निशाभोजने क्रियमाणेऽवश्यं पापः संभवति । तत्र षड्जीवनिकायवधोऽवश्यं भोजनधावनादौ च जलगतजन्तुविनाशो जलोज्झने च भूमिगत कुन्थुपिपीलकादिजन्तुघातश्च भवति । अव्यन्तरा आदयो येषां पिशाचराक्षसादीनां तैरुच्छिष्टं - स्पर्शनादिना अभोज्यतां नीतम् । प्रेताद्युच्छिष्टं - प्रेता तदुक्तम्— 'अन्नं प्रेतपिशाचाद्यैः संचरद्भिर्निरङ्कुशैः । उच्छिष्टं क्रियते यत्र तत्र नाद्याद्दिनात्यये ॥' [ योगशा. ३।४८ ] उत्सृष्टं - नियमितं वस्तु, घोरान्धकाररुद्धदृशां तदुपलक्षणासंभवात् । अहो - आश्चर्यं कष्टं वा । सुखी, इहामुत्र च दुःखभागेवेत्यर्थः । तदाह 'अहिंसाव्रतरक्षार्थं मूलव्रतविशुद्धये । निशायां वर्जयेद्भक्तिमिहामुत्र च दुःखदाम् ॥' [ सो. उपा. ३२५ ] ॥२५॥ अथ वनमालोदाहरणेन रात्रिभोजनदोषस्य महत्तां दर्शयति त्वां यद्युपैमि न पुनः सुनिवेश्य रामं, लिये बधादिकृदधैस्तदिति श्रितोऽपि । सौमित्रिरन्यशपथान्वनमालये कं गले लगकर स्वर भंग कर देता है । इत्यादि दोष रात्रिभोजनमें देखे जाते हैं। प्रतिवर्ष समाचार पत्रों में जहरीले भोजनसे मरनेवालोंका समाचार पढ़ने में आता है । चायकी केतलीमें या हलवाईकी दूधकी कढ़ाई में छिपकलीके गिर जानेसे विषैली चाय और विषैला दूध, दही, खानेवाले प्रतिवर्ष मरते सुने जाते हैं । बिच्छूकी भी एक घटना प्रकाशित हुई थी । मुरादाबाद के किसी प्रदेशमें एक लड़का अपनी खाट के नीचे पानी रखकर सो गया । पानीमें कहीं से बिच्छू आ गिरा। लड़केको प्यास लगी तो उसने पानी पिया । पानीके साथ बिच्छू भी उसके मुँह में चला गया और लड़केका तालु पकड़कर उसमें अपना डंक मारता रहा । बहुत प्रयत्न करनेपर भी बिच्छू अलग नहीं हुआ और लड़का तीव्र वेदनासे मर गया । अतः रात्रिभोजन के ये दोष तो सर्वत्र देखे जा सकते हैं । पुरानी मान्यता के अनुसार रात्रिमें भूतप्रेत विचरण करते हैं और वे भोजन जुठा कर जाते हैं। तथा रात्रिमें दिखाई न देने से कभीकभी ऐसी वस्तु भी खाने में आ जाती है जिसे खानेवालेने छोड़ा हुआ था । फिर भी लोग रात्रिभोजन में आनन्द मानते हैं यही आश्चर्य है । आचार्य सोमदेवने कहा है- 'अहिंसा व्रतकी रक्षा और मूलव्रतों में विशुद्धिके लिए रात्रि भोजन छोड़ना चाहिए। यह इस लोक और परलोक में दुःखदायी है' ||२५|| आगे वनमाला के दृष्टान्त में रात्रिभोजन दोषकी महत्ता बतलाते हैं जैन रामायण पद्मपुराणमें सुना जाता है कि 'रामचन्द्रजीको अच्छी तरह व्यवस्थित करके यदि मैं तुम्हारे पास न आऊँ तो मुझे गोहत्या, स्त्रीहत्या आदिका पाप लगे ।' इस प्रकार अन्य शपथोंके करनेपर भी वनमालाने लक्ष्मणसे एक यही शपथ करायी कि मुझे रात्रिभोजनका पाप लगे ||२६|| Jain Education International दोषा शिदोषपथं किल कारितोऽस्मिन् ॥२६॥ १५ वधादिकृदः - गोस्त्र्यादिघातकादिपापैः । सौमित्रिः - लक्ष्मणः । दोषाशिनः - रात्रिभोजिनः । किल – एवं हि रामायणे श्रूयते । तद्यया - लक्ष्मणो दशरथपितृनिर्देशात् सह रामेण सीतया दक्षिणापथे प्रस्थितः । अन्तरा कूर्च नगरे महीधरतनयां वनमालां परिणीतवान् । ततश्च रामेण सह परतो देशान्तरं यियासन् १८ ३ For Private & Personal Use Only ६ १२ www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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