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________________ प्रस्तावना १३ आशाधरजीने अपने सागारधर्मामृत के प्रथम अध्यायमें महापुराण के उक्त सब कथनको इस प्रकार निबद्ध किया है " नित्याष्टाह्निकसच्चतुर्मुख महः कल्पद्रुमैन्द्रध्वजाविज्या: पात्रसमक्रियान्वयदयादत्तीस्तपः संयमान्' । स्वाध्यायं च विधातुमादृत कृषीसेवा वणिज्यादिकः शुद्धयाप्तोदितया गृही मललवं पक्षादिभिश्च क्षिपेत् ॥” इसमें महापुराण में उक्त पूजाके चार भेद, दानके चार भेद, तप, संयम, स्वाध्याय आते हैं । तथा कृषि सेवा, व्यापार आदिमें लगे दोषोंकी शुद्धिके लिये पक्षादिको भी कहा है । इससे आगे श्लोकमें पक्ष चर्या साधनका स्वरूप उक्त प्रकारसे ही कहा है । यह सब कथन सागारधर्मामृत से पूर्व किसी भी श्रावकाचारमें या महापुराणके सिवाय अन्य किसी ग्रन्थमें हमारे देखने में नहीं आया । इन्हीं पक्ष चर्या तथा साधनके आधारपर आशाधरजीने श्रावकके पाक्षिक, कहे हैं । ये तीन भेद भी इससे पूर्व नहीं मिलते। चामुण्डरायकृत चारित्रसार में भी इज्या, वार्ता आदि षट् कर्म कहे हैं किन्तु पक्ष चर्या साधनकी चर्चा उसमें नहीं है । श्रावकके तीन भेद करना तो शायद आशाधरजीकी अपनी ही सूझबूझ है । वैसे तीनों हैं । जिसे जैनधर्मका पक्ष हो, अर्थात् जिसने जैनधर्म स्वीकार किया हो वह पाक्षिक है है अर्थात् निरतिचार श्रावकधर्मका निर्वाह करता है वह नैष्ठिक है । एकादश प्रतिमा नैष्ठिकके ही भेद हैं । और जब नैष्ठिक मरणकाल उपस्थित होनेपर आत्मसाधना -- समाधि पूर्वक मरण करता है तो वह साधक है । इस तरह पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक नाम सार्थक हैं । इन्हींका वर्णन आगे के अध्यायों में हैं । भेद बहुत ही उपयुक्त और जो उसमें निष्ठ २. द्वितीय अध्याय - पाक्षिकका वर्णन - दुसरे अध्याय में पाक्षिकका वर्णन कई दृष्टियोंसे महत्त्वपूर्ण है । पाक्षिकका मतलब होता है साधारण श्रावक या आम जैन जनता । उसका क्या कर्तव्य है, यह अन्य किसी भी श्रावकाचार में वर्णित नहीं है और जनसाधारण की दृष्टिसे वही विशेष उपयोगी है । उसके प्रारम्भमें कहा है-जो जिन भगवान्‌की आज्ञासे सांसारिक विषयोंको त्यागने योग्य जानते हुए भी मोहवश छोड़ने में असमर्थ है उसे गृहस्थ धर्म पालन करने की अनुमति है । " त्यागने योग्य जानते हुए भी" को स्पष्ट करते हुए टीकामें कहा है कि अनन्तानुबन्धी राग आदिके वशीभूत होकर जो विषयोंको सेवनीय मानता है वह गृहस्थ धर्मके पालनका अधिकारी नहीं है । ऐसी परिणति तो दूर की बात है, आन्तरिक श्रद्धाका होना भी कठिन है । अनन्तानुबन्धी कषायके उदयमें इस प्रकारकी श्रद्धा होना संभव नहीं है । और उसके बिना सम्यक्त्वकी बात बहुत दूर है । फिर भी उक्त कषायके मन्द उदय में मनुष्यों की प्रवृत्ति त्यागकी ओर होती है । किन्तु वह त्याग संसारका अन्त करनेमें तभी समर्थ होता है जब उसके साथ सम्यक्त्व होता है। अतः पाक्षिकको भी सम्यग्दृष्टि होना चाहिये । उसके पश्चात् वह अष्ट मूलगुण धारण करता है । नैष्ठिक तथा साधक भेद महापुराण में प्रतिपादित और उनके आधार पर अष्टमूल गुण - मद्य, मांस, मधु और पांच उदुम्बर फलोंके त्यागको अष्टमूल गुण कहते हैं । इन अष्टमूल गुणोंके सम्बन्धमें मतभेद है और उसे भी आशाधरजीने लिखा है । वह लिखते हैं 'हमने सोमदेव के उपासकाध्ययन आदिका अनुसरण करते हुए उक्त अष्टमूल गुण कहे हैं । और स्वामी समन्तभद्रने पाँच अणुव्रत और तीन मकार के त्यागको अष्टमूल गुण कहा है। तथा महापुराणमें पाँच अणुव्रत और द्यूत, मद्य, मांसके त्यागको अष्टमूल गुण कहा है'। उसके समर्थनमें उन्होंने चारित्रसारसे एक श्लोक भी दिया है जो चारित्रसार में ' तथा चोक्तं महापुराणे' करके उद्धृत है । किन्तु महापुराणके मुद्रित संस्करणों में यह श्लोक नहीं पाया जाता । उसमें तो पाँच उदुम्बरोंके त्यागवाले ही अष्टमूल गुण मिलते । यथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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