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________________ एकादश अध्याय (द्वितीय अध्याय) इत्यादि सूक्तिसुधा........भितः। परेऽपि-पारलौकिके। ऊर्जति-समर्थो भवति । एतेनेदमपि संगृहीतम् 'द्वो हि धर्मों गृहस्थानां लौकिकः पारमार्थिकः । लोकाश्रयो भवेदाद्यः परः स्यादागमाश्रयः ।। जातयोऽनादयः सर्वास्तत्क्रियापि तथाविधा । श्रुतिः शास्त्रान्तरं वास्तु प्रमाणं कात्र नः क्षतिः ।। स्वजात्यैव विशुद्धानां वर्णानामिह रत्नवत् । तक्रियाविनियोगाय जैनागमविधिः परम् ।। यद्भव भ्रान्तिनिर्मुक्तिहेतुधीस्तत्र दुर्लभा । संसारव्यवहारे तु स्वतः सिद्धे वृथागमः ।। तथा च सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः । यत्र सम्यक्त्वहानिनं यत्र न व्रतदूषणम् ॥ [ सो. उपा. ४७६-४८०] इति स्थितम् ॥५८॥ अथ सत्कन्याप्रदातुः सार्धामकोपकारकरणद्वारेण महान्तं सुकृतलाभमवभासयन्नाह सत्कन्यां ददता दत्तः सत्रिवर्गो गृहाश्रमः । गृहं हि गृहिणीमाहुन कुड्यकटसंहतिम् ॥५९॥ किन्तु विभिन्न गोत्रवालोंमें होता है । यदि कन्याका पिता समृद्धिशाली हुआ तो कन्या अपनेसे हीन ऐश्वर्यवाले पतिका तिरस्कार करती है। छोटा आदमी यदि बड़ेके साथ सम्बन्ध करता है तो व्यय तो बहुत होता है और आय कम होती है। विवाहकी बात पक्की हो जानेपर भी जबतक विवाह न हो जाये तबतक सन्देह रहता है। अनुलोम विवाहमें ब्राह्मण चारों वर्णकी, क्षत्रिय तीन वर्णोंकी और वैश्य दो वर्षों की कन्यासे विवाह कर सकता है। देश विशेष में मामाकी कन्यासे भी विवाह होता है।' - आचार्य कहते हैं-'यह गृहस्थाश्रम क्वचित्-क्वचित् धर्ममय है किन्तु प्रायः पापमय है। इसलिए यह अन्धेके रस्सी बटनेके समान या हाथीके स्नानके समान है। यह सर्वथा हितकर नहीं है।' गृहस्थके दो धर्म हैं-लौकिक और पारलौकिक । लौकिक धर्म लोकरीतिके अनुसार चलता है। किन्तु पारलौकिक धर्म आगमके अनुसार होता है । सभी जैनोंको ऐसी लौकिक विधि मान्य होती है जिसके पालन करनेसे सम्यक्त्वकी हानि न हो और व्रतोंमें दूषण न लगे। सांसारिक व्यवहार तो स्वतःसिद्ध है उसके लिए आगमकी आवश्यकता नहीं है। आगमकी आवश्यकता तो संसार छोड़ने के लिए है। विवाहका भी यही लक्ष्य है, संसारमें रमना नहीं। जो विवाह द्वारा जीवनको सुखी बनाते हैं वे अन्तमें गृह त्यागकर अपने परलोकको भी सुधारने में समर्थ होते हैं ॥५८॥ आगे कहते हैं कि योग्य कन्याके दाता पिताको अपने साधर्मीका उपकार करनेसे महान् पुण्यबन्ध होता है सत्कन्या देनेवालेने धर्म-अर्थ-काम सहित गृहाश्रम दे दिया ; क्योंकि पत्नीको ही गृह कहते हैं, दीवार और बाँस आदिके समूहको गृह नहीं कहते ॥५९।। १. 'गृहिणी गृहमुच्यते न पुन: कुड्यकटसंघातः ।'-नीतिवा०, ३१॥३१ । सा.-१३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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