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________________ एकादश अध्याय ( द्वितीय अध्याय ) हृत्वा छित्वा च भित्वा च क्रोशन्तीं रुदती गृहात् । प्रसह्य कन्याहरणं राक्षसोऽधर्म उच्यते ॥ सुप्तां प्रमत्तां मत्तां वा रहो यत्रोपगच्छति । स पापिष्टो विवाहानां पैशाचः प्रथितोऽष्टमः ।। ब्राह्मादिषु विवाहेषु चतुर्वेवानुपूर्वकः । ब्रह्मवर्चस्विनः पुत्राः जायन्ते शिष्टसंमताः ।। रूपसत्त्वगुणोपेता धनवन्तो यशस्विनः । पर्याप्तभोगा धर्मिष्ठा जीवन्ति च शतं समाः ।। इतरेषु त्वशिष्टेषु नृशंसानृतवादिनः । जायन्ते दुर्विवाहेषु ब्रह्मधर्मद्विषः सुताः॥ अनिन्दितैः स्त्रीविवाहैरनिन्द्या भवति प्रजा। निन्दितैनिन्दिता नृणां तस्मान्निन्द्यानि वर्जयेत् ।।' [मनुस्मृ. ३।२१,२७-३४,३९-४२] १२ धर्म्यविवाहविधिरा!क्तो यथा 'ततोऽस्य गुर्वनुज्ञानादिष्टा वैवाहिकी क्रिया। वैवाहिके कुले कन्यामुचितां परिणेष्यतः ॥ सिद्धार्चनविधिं सम्यग् निर्वयं द्विजसत्तमाः। कृताग्नित्रयसंपूज्याः कुर्युस्तत्साक्षिकां क्रियाम् ।। पुण्याश्रमे क्वचित् सिद्धप्रतिमाभिमुखं तयोः । दम्पत्योः परया भूत्या कार्यः पाणिग्रहोत्सवः ।। वेद्यो प्रणीतमग्नीनां त्रयं द्वयमथैककम् । ततः प्रदक्षिणीकृत्य प्रशय्य विनिवेशनम् ॥ कन्यादान ब्राह्म विवाह है। यज्ञमें पधारे ऋत्विजको जो यज्ञकर्म करता है, अलंकृत करके कन्या देना दैवविवाह है। वरसे एक या दो गोमिथुन लेकर विधिवत् कन्या देना आर्ष विवाह है। दोनों मिलकर धर्मका पालन करना ऐसा कहकर कन्या देना प्राजापत्य विवाह है । ये चारों विवाह धर्म्य हैं। कुटुम्बियोंको कन्याके लिए धन देकर बलपूर्वक कन्यादान आसुर है। कन्या और वरका परस्परकी इच्छासे सम्बन्ध करना गान्धर्व विवाह है। यह विवाह कामज है। रोती-चिल्लाती हुई कन्याको बलपूर्वक हरण करना राक्षस विवाह है। सोती हुई या पागल या बेहोश कन्याके पास एकान्तमें जाना सब विवाहोंमें निकृष्ट पैशाच विवाह है । इनमें से ब्राह्म आदि चार विवाहोंमें ही ब्रह्मविद् तेजस्वी पुत्र उत्पन्न होते हैं और वे रूप, सत्त्व आदि गुणोंसे युक्त धनवान , यशस्वी और धार्मिक होते हैं तथा सौ वर्ष तक जीते हैं। अन्य दुर्विवाहोंमें ब्रह्म और धर्मके द्वेषी, असत्यवादी क्रूर पुत्र उत्पन्न होते हैं। अनिन्दित स्त्रीविवाहोंसे अनिन्द्य सन्तान उत्पन्न होती है और निन्दितसे निन्दित । इसलिए मनुष्योंको निन्दित विवाह नहीं करना चाहिए । महापुराणमें विवाह क्रियाका वर्णन करते हुए लिखा है-विवाहके योग्य कुलमें उत्पन्न हुई कन्याके साथ जो विवाह करना चाहता है गुरुकी आज्ञासे उसकी वैवाहिक क्रिया की जाती है। सबसे पहले अच्छी तरह सिद्ध भगवानका पूजन करना चाहिए। फिर १. प्रसज्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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