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________________ ७४ धर्मामृत ( सागार) अथ कल्पद्रुममाह किमिच्छकेन दानेन जगदाशाः प्रपूर्यं यः । चक्रिभिः क्रियते सोऽहंद्यज्ञः कल्पद्रुमो मतः॥२८॥ किमिच्छकेन-किमिच्छसीति प्रश्नपूर्वकं याचकेच्छानुरूपं क्रियमाणेन ॥२८॥ अथ बलिस्नपनादिजिनपूजाविशेषाणां नित्यमहादिष्ववान्तर्भावमोह बलिस्नपन-नाट्यादि नित्यं नैमित्तिकं च यत् । भक्ताः कुर्वन्ति तेष्वेव तद्यथास्वं विकल्पयेत् ॥२९॥ ॥२९॥ अथ जलादिपजानां प्रत्येक दिङ्मात्रेण फलमालपति वार्धारा रजसः शमाय पदयोः सम्यक्प्रयुक्ताऽहंतः, सद्गन्धस्तनुसौरभाय विभवाच्छेदाय सन्त्यक्षताः। यष्टुः स्रग्दिविजस्रजे चरुरुमास्वाम्याय दीपस्त्विषे, धूपो विश्वदृगुत्सवाय फलमिष्टार्थाय चार्घाय सः॥३०॥ विशेषार्थ-जिनको सामन्त आदिके द्वारा मुकुट बाँधे गये हैं उन्हें मुकुटबद्ध या मण्डलेश्वर कहते हैं। वे जब भक्तिवश जिनदेवकी पूजन करते हैं तो उस पूजाको सर्वतोभद्र आदि कहते हैं। वह पूजा सभी प्राणियोंको कल्याण करनेवाली होती है इसलिए उसे सर्वतोभद्र कहते हैं। चतुर्मुख मण्डपमें की जाती है इसलिए चतुर्मुख कहते हैं। और अष्टाहिककी अपेक्षा महान् होनेसे महामह कहते हैं। यदि मण्डलेश्वर चक्रवर्ती आदि के भयसे यह पूजा करता है तब उसकी यह गरिमा समाप्त हो जाती है। इसीलिए भक्तिवश कहा है। यह पूजा भी आगे कही जानेवाली कल्पवृक्ष पजाके तल्य ही होती है। अन्तर इतना है कि कि कल्पवृक्ष पूजामें चक्रवर्ती अपने साम्राज्य-भरमें दान करता है और इस पूजामें मण्डलेश्वर केवल अपने जनपद में दान करता है ॥२७|| __ आगे कल्पवृक्ष पूजाका स्वरूप कहते हैं 'क्या चाहते हो' इस प्रकारके प्रश्नपूर्वक याचककी इच्छाके अनुरूप दानके द्वारा लोगोंके मनोरथोंको पूरा करके चक्रवर्तीके द्वारा जो जिनपूजा की जाती है उसे कल्पद्रुम कहते हैं ॥२८॥ आगे कहते हैं कि उपहार, अभिषेक आदि जो जिनपूजाके भेद हैं उन सबका अन्तर्भाव इन्हीं नित्यगह आदि में होता है ___ जिनेन्द्र भगवान के भक्त, श्रावक प्रतिदिन या पर्व के अवसरोंपर जो उपहार, अभिषेक, गीत-नृत्य आदि करते हैं वे सब यथायोग्य उन्हीं नित्यमह आदिमें अन्तर्भूत होते हैं । अर्थात् जिनेन्द्र भगवानको लक्ष करके जो भी भक्ति प्रदर्शित की जाती है चाहे वह भेंटरूपमें हो या गीत-नृत्य आदिके रूपमें हो; विद्वान् उन सबको नित्यपूजा आदिके ही भेद मानते हैं ॥२९॥ आगे प्रत्येक जलादि पूजाका फल कहते हैं अर्हन्त भगवानके दोनों चरणों में विधिपूर्वक अर्पित की गयी जलकी धारा पूजा करनेवालेके पापोंकी शान्ति के लिए होती है। उत्तम चन्दन पूजकके शरीरकी सुगन्धके लिए होता है । अखण्ड तन्दुल पूजकके अणिमा आदि विभूति अथवा धन सम्पतिके नष्ट नहीं होनेके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001017
Book TitleDharmamrut Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size10 MB
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