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धर्मामृत ( सागार)
शूद्रोऽप्युपस्कराचारवपुःशुद्धयाऽस्तु तादृशः।
जात्या होनोऽपि कालादिलब्धौ ह्यात्माऽस्ति धर्मभाक् ॥२२॥ उपस्करः-आचमनाद्युपकरणम्। आचारः-मद्यादिविरतिः । तादृशः-जिनधर्मश्रुतेर्योग्यः देवद्विजतपस्वीपरिकर्मयोग्यो वा। यन्नीति:--'आचारानवद्यत्वं शुचिरुपस्करः शारीरी च शुद्धिः करोति
शूद्रमपि देवद्विजतपस्वीपरिकर्मसु योग्यमिति ।'-[नीति वा०] हीनः-अल्पो रिक्तो वा । धर्मभाक्६ श्रावकधर्माराधकः । यदाह
'दीक्षायोग्यास्त्रयो वर्णाश्चत्वारश्च विधोचिताः ।
मनोवाक्कायधर्माय मताः सर्वेऽपि जन्तवः ॥'सो. उपा., ७९१ श्लो.] वर्णलक्षणमार्षे यथा
'ब्राह्मणा व्रतसंस्कारात् क्षत्रियाः शस्त्रधारणात् ।
वणिजोऽर्थार्जनान्न्याय्याच्छूद्रा न्यग्वृत्तिसंश्रयात् ॥' [ महापु. ३८।४६ ] स्वयमप्यन्वाख्यच्च सिद्धयः
'कर्म धयं क्षतत्राणं वार्ता प्रेषं च मानुषाः ।
कुर्वाणा जात्यभेदेऽपि भेद्या विप्रादिभेदतः ।।' ॥२२॥ अथानृशंस्यममूषाभाषित्वं परस्वनिवृत्तिरिच्छानियमो निषिद्धासु च स्त्रीष ब्रह्मचर्यमिति सर्वसाधारणं धर्ममभिधायेदानीमध्ययनं यजनं दानं च ब्राह्मण-क्षत्रिय-विशां समानो धर्मोऽध्यापनयाजनप्रतिग्रहाश्च ब्राह्मणानामेवेति विशेषतस्तद्वयाख्यानार्थमुत्तरप्रबन्धमुपक्रममाणो यजनादिविधानाय पाक्षिकं तावदेवं नियुङ्क्ते
__ आसन आदि उपकरण, मद्य आदिकी विरतिरूप आचार और शरीरकी शुद्धिसे विशिष्ट शूद्र भी जिनधर्मके सुननेके योग्य होता है। क्योंकि वर्णसे हीन भी आत्मा योग्य काल-देश आदिकी प्राप्ति होने पर श्रावक धर्मका आराधक होता है ।।२२।।
विशेषार्थ-यद्यपि दीक्षाके योग्य तीन ही वर्ण होते हैं तथापि शूद्रको भी अपनी मर्यादाके अनुसार धर्म सेवनका अधिकार है। किन्तु इसके लिए उसका निवासस्थान, उसका खानपान तथा शरीर शुद्ध होना आवश्यक है। आचार्य सोमदेवने कहा है कि आचारशुद्धि, घर-बरतन वगैरहको सफाई और शरीर शुद्धि शूद्रको भी देव, द्विज और तपस्वियोंकी सेवाके योग्य बनाती है । उन्होंने जिनमें पुनर्विवाह प्रचलित नहीं है उन्हें सत्शूद्र कहा है। सत्शूद्र तो मुनिको आहार भी दे सकता है किन्तु मुनिपद धारण नहीं कर सकता। किन्तु श्रावक धर्मके पालनका उसे अधिकार प्राप्त है। महापुराणमें कहा है कि जो दीक्षाके अयोग्य कुल में उत्पन्न हुए हैं और नाचना-गाना आदि विद्या और शिल्पसे आजीविका करते हैं ऐसे पुरुषोंको यज्ञोपवीत आदि संस्कारोंकी आज्ञा नहीं है। किन्तु ऐसे लोग अपनी योग्यतानुसार व्रत धारण करें तो जीवन पर्यन्त एक शाटक धारण करके व्रती रह सकते हैं। क्रूरता न करना, सत्य बोलना, पराया धन न लेना, परिग्रहका परिमाण और निषिद्ध स्त्रीमें ब्रह्मचर्यका पालन ये सर्वसाधारणका धर्म है इसे सभी वर्णवालोंको पालना चाहिए ॥२२॥
आगे कहते हैं कि अध्ययन, पूजन और दान ये ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यका समान
१. 'सकृत्परिणयनव्यवहाराः सच्छुद्राः । आवारानवद्यत्वं शुचिरुपस्करः शारीरी च विशुद्धिः करोति शूद्रमपि
देवद्विजतपस्विपरिकर्मसु योग्यम् ॥'-नीतिवा. ७।११-१२ २. महापु. ४०।१७१-१७३ ।
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