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________________ प्रथम अध्याय अथ धर्मस्यामुत्रिकफलातिशयं स्तौति यद्दिव्यं वपुराप्य मङ्क्षु हृषितः पश्यन् पुरा सत्कृतं, द्राग् बुद्धवावधिना यथा स्वममरानादृत्य सेवादृतान् । सुप्रीतो जिनयज्वनां धुरि परिस्फूर्जन्नुदारश्रियां, ३९ स्वाराज्यं भजते चिराय विलसन् धर्मस्य सोऽनुग्रहः ॥४०॥ ६ मङ्क्षु - अन्तमुहूर्ततः, हृषितः - विस्मितः । सुकृतं - सदाचरणम् । अवधिना - तत्कालोत्पन्नातीन्द्रियज्ञानविशेषेण यथास्वं – यो यस्य नियोगस्तं तत्रैव प्रत्यवस्थाप्य इत्यर्थः । अमरान् — सामानिकादीन् । जिनयज्वनां - अर्हत्पूजकानामैशानादिशक्राणाम् । स्वाराज्यं —– स्वर्गेऽधिपतित्वम्, विलसन् — शच्यादिदेवीविलासप्रसक्तः सन् । स अनुग्रहः उपकारः ॥४०॥ देश - कालादि दुःखके कारण हैं । बाह्य कारणों में कुछ कारण तो ऐसे होते हैं जिनके निमित्तसे शरीरकी अवस्था सुख-दुःखका कारण होती है और कुछ कारण ऐसे होते हैं जो स्वयं ही सुख-दुःखके कारण होते हैं । ऐसे कारणोंकी प्राप्ति वेदनीय कर्मके उदयसे बतलायी है । साता वेदनीयके उदयसे सुखके कारण मिलते हैं और असाता वेदनीयके उदयसे दुःखके कारण मिलते हैं । किन्तु कारण ही सुख-दुःखको उत्पन्न नहीं करते, जीव मोहके उदयसे स्वयं सुख-दुःख मानता है। वेदनीय और मोहनीय कर्मोंके उदयका ऐसा ही सम्बन्ध है । सातावेदनीयके उदयसे प्राप्त बाह्य कारण मिलता है तब सुख मानने रूप मोहका उदय होता है और जब असातावेदनीयके उदयसे प्राप्त बाह्य कारण मिलता है तब दुःख मानने रूप मोहका उदय होता है । एक ही बाह्य कारण किसीके सुखका और किसीके दुःखका कारण होता है । जैसे किसीको सातावेदनीयके उदयमें मिला हुआ जैसा वस्त्र सुखका कारण होता है वैसा ही वस्त्र किसीको असातावेदनीयके उदयमें मिले तो दुःखका कारण होता है । इसलिए बाह्य वस्तु सुख - दुःखका निमित्त मात्र है सुख-दुःख तो मोह के निमित्तसे होता है । निर्मोही मुनियोंको ऋद्धि आदि तथा परीष आदि कारण मिलते हैं फिर भी उन्हें सुख-दुःख नहीं होता । अतः सुख-दुःखका बलवान कारण मोहका उदय है, अन्य वस्तुएँ बलवान कारण नहीं हैं | परन्तु अन्य वस्तुओंके और मोही जीवके परिणामोंके निमित्त नैमित्तिककी मुख्यता है इससे मोही जीव अन्य वस्तुओंको ही सुख-दुःखका कारण मानता है । पुण्य कर्मके उदयमें सुखरूप सामग्री की प्राप्ति होती है इसीलिए उसमें पुण्य कर्मको निमित्त माना जाता है ||३९|| Jain Education International इस प्रकार अनेक प्रकारके शुभ परिणामोंसे संचित पुण्यविशेषके अतिशय युक्त विचित्र फलों का सामान्य कथन किया । अब विशेष रूपसे उसके पारलौकिक विचित्र फलोंको बताते हैं । सबसे प्रथम स्वर्गलोक सम्बन्धी सुख का कथन करते हैं अन्तर्मुहूर्तमें ही उपपाद शिला पर उत्पन्न हुआ दिव्य शरीर प्राप्त करके विस्मयपूर्वक चारों ओर देव और देवियोंके समूहको देखता है । देखते ही तत्काल उत्पन्न हुए अवधिज्ञानसे जानता है कि पूर्व जन्म में शुभ परिणामसे उपार्जित पुण्यका यह फल है । तब प्रसन्न होकर सेवामें तत्पर प्रतीन्द्र सामानिक आदि देवोंका यथायोग्य सत्कार करता है । और महर्द्धिक देवोंके चित्तमें भी आश्चर्य उत्पन्न करनेवाली अणिमा आदि आठ ऋद्धियोंके ऐश्वर्य से सम्पन्न ईशान आदि इन्द्रोंके, जो जिनदेवके पूजक होते हैं, भी अगुआ बनकर For Private & Personal Use Only ३ www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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